पुरानी अद्भुत यादें
देहरी,आँगन,धूप नदारत।
ताल,तलैया,कूप नदारत।
घूंघट वाला रूप नदारत।
डलिया,चलनी,सूप नदारत।
आया दौर फ़्लैट कल्चर का,
देहरी,आँगन,धूप नदारत।
हर छत पर पानी की टंकी,
ताल,तलैया,कूप नदारत।
लाज – शरम चंपत आँखों से,
घूंघट वाला रूप नदारत।
पैकिंग वाले चावल,दालें,
डलिया,लनी,सूप नदारत।
बढ़ीं गाड़ियां,जगह कम पड़ीं,
सड़कों के फुटपाथ नदारत।
लोग हुए मतलबपरस्त सब,
मदद करें वे हाथ नदारत।
मोबाइल पर चैटिंग चालू,
यार – दोस्त का साथ नदारत।
बाथरूम,शौचालय घर में,
कुआं,पोखर ताल नदारत।
हरिली का दर्शन दुर्लभ,
कोयलिया की कूक नदारत।
घर – घर जले गैस के चूल्हे,
चिमनी वाली फूंक नदारत।
मिक्सी,लोहे की आलमारी,
सिलबट्टा,संदूक नदारत।
मोबाइल सबके हाथों में,
विरह,मिलन की हुक नदारत।
बाग़ – बगीचे खेत बन गए,
जामुन,बरगद,रेड़ नदारत।
सेब,संतरा,चीकू बिकते,
गूलर,पाकड़ पेड़ नदारत।
ट्रैक्टर से हो रही जुताई,
जोत – जाट में मेड़ नदारत।
रेडीमेड बिक रहा ब्लैंकेट,
पालों के घर भेड़ नदारत।
लोग बढ़ गए,बढ़ा अतिक्रमण,
जुगनू,जंगल,झाड़ नदारत।
कमरे बिजली से रोशन हैं,
ताखा,दियना,टांड़ नदारत।
चावल पकने लगा कुकर में,
बटलोई का मांड़ नदारत।
कौन चबाये चना – चबेना,
भड़भूजे का भाड़ नदारत।।
पक्के ईंटों वाले घर हैं,
छप्पर और खपरैल नदारत।
ट्रैक्टर से हो रही जुताई,
दरवाजे से बैल नदारत।
बिछे खड़ंजे गली – गली में,
धूल धूसरित गैल नदारत।
चारे में भी मिला केमिकल,
गोबर से गुबरैल नदारत।शर्ट – पैंट का फैशन आया,
धोती और लंगोट नदारत।
खुले – खुले परिधान आ गए,
बंद गले का कोट नदारत।
आँचल और दुपट्टे गायब,
घूंघट वाली ओट नदारत।
महंगाई का वह आलम है,
एक – पांच के नोट नदारत।
लोकतंत्र अब भीड़तंत्र है,
जनता की पहचान नदारत।
कुर्सी पाना राजनीति है,
नेता से ईमान नदारत।
गूगल विद्यादान कर रहा,
गुरुओं का सम्मान नदारत।।