संस्कृत श्लोक एवं भावार्थ

” अभिवादनशीलस्य नित्यं वृद्धोपसेविनः ।
चत्वारि तस्य वर्धन्ते आयुर्विद्या यशो बलम् ।।”

भावार्थ :- प्रतिदिन नमस्कार,अभिवादन करने का जिसका स्वभाव है
और जो नित्य -प्रतिदिन बड़े बूढ़ों की सेवा करते हैं उनकी ये चार चीजें
आयु,विद्या,यश,कीर्ति और बल नित्य उन्नति एवं बढ़ती हैं।


” अयं निजः परोवेति गणना लघु चेतसाम्।
    उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुमकम्।।”

भावार्थ :- यह मेरा है,यह उसका है;ऐसी सोच संकुचित चित्त (हृदय )
वाले व्यक्तियों की होती है,इसके विपरीत उदार चित्त (हृदय ) वालों
के लिए तो यह सम्पूर्ण पृथ्वी ही एक परिवार के समान है।
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” अष्टादश पुराणेषु व्यासस्य वचनद्वयम् ।
परोपकारः पुण्याय पापय परपीडनम् ।।”

भावार्थ :- महर्षि वेदव्यास जी ने अठारह पुराणों में दो विशिष्ट बातें कही हैं।
पहली -परोपकार करना पुण्य होता है और
दूसरी – पाप का अर्थ होता है दूसरों को दुःख देना ।
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” श्रोत्रं श्रुतेनैव न कुण्डलेन,दानें पाणिर्न तु कंकणेन।
विभाति कायःकरुणापराणां,परोपकारैर्न तु चन्दनेन।।”

भावार्थ :– कानों की शोभा कुण्डलों के पहनने से नहीं अपितु ज्ञान
की बातें सुनने से होती है।हाथ दान करने से सुशोभित होते हैं न
कि कंगन पहनने से, दयालु ,सज्जन व्यक्तियों का शरीर चन्दन के
लेपन से नहीं बल्कि दूसरों की भलाई करने से शोभा पाता है।
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” आलस्यं हि मनुष्याणां शरीरस्थो महान रिपुः।
   नास्त्युद्यमसमो बन्धुःकृत्वा यं नावसीदति ।।”

भावार्थ :- मनुष्य का सबसे बड़ा शत्रु उसके शरीर में स्थित आलस्य है।
मनुष्य का सबसे बड़ा मित्र परिश्रम है जिसे करने से वह कभी दुखी नहीं रहता है।


” गच्छन् पिपिलिको याति योजनानां शतान्यपि ।
अगच्छन् वैनतेयः अपि पदमेकं न गच्छति ॥”

भावार्थ :- लगातार चल रही चींटी सैकड़ों योजनों की दूरी तय कर लेती है,
परंतु न चल रहा गरुड़ एक कदम आगे नहीं बढ़ पाता है ।
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” विद्या शस्त्रस्य शास्त्रस्य द्वे विद्ये प्रतिपत्तये ।
आद्या हास्याय वृद्धत्वे द्वितियाद्रियते सदा॥”

भावार्थ :- शस्त्र-विद्या एवं शास्त्र-विद्या यानी ज्ञानार्जन, दोनों ही मनुष्य को सम्मान दिलवाती हैं ।
किंतु वृद्धावस्था प्राप्त होने पर इनमें से प्रथम यानी शास्त्र-विद्या उसे उपहास का पात्र बना देती है,
जब उस विद्या का प्रदर्शन करने की उसकी शारीरिक क्षमता समाप्त प्राय हो जाती है । लेकिन
शास्त्र-ज्ञान सदा ही उसे आदर का पात्र बनाये रखती है ।


” श्वः कार्यमद्य कुर्वीत पूर्वाह्णे चापराह्णिकम् ।
न हि प्रतीक्षते मृत्युः कृतं वास्य न वा कृतम् ॥”

भावार्थ :- जो कार्य कल किया जाना है उसे पुरुष आज ही संपन्न कर लें और
जो अपराह्न में किया जाना हो उसे पूर्वाह्न में पूरा कर लें क्योंकि मृत्यु किसी के
लिए प्रतीक्षा नहीं करती है, भले ही कार्य संपन्न कर लिया गया हो या नहीं ।
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” छायां ददाति शशिचन्दनशीतलां यः सौगन्धवन्ति सुमनांसि मनोहराणि ।
स्वादूनि सुन्दरफलानि च पादपं तं छिन्दन्ति जाङ्गलजना अकृतज्ञता हा ॥”

भावार्थ :- जो वृक्ष चंद्रकिरणों तथा चंदन के समान शीतल छाया प्रदान करता है,
सुन्दर एवं मन को मोहित करने वाले पुष्पों से वातावरण सुगंधमय बना देता है,
आकर्षक तथा स्वादिष्ट फलों को मानवजाति पर न्यौछावर करता है, उस वृक्ष
को जंगली असभ्य लोग काट डालते हैं । अहो मनुष्य की यह कैसी अकृतज्ञता है।

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” हीयते हि मतिस्तात् , हीनैः सह समागतात्।
समैस्च समतामेति , विशिष्टैश्च विशिष्टितम् ॥”

भावार्थ :-हीन लोगों की संगति से अपनी भी बुद्धि हीन हो जाती है,
समान लोगों के साथ रहने से समान बनी रहती है और विशिष्ट लोगों
की संगति से विशिष्ट हो जाती है।
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” इह लोके हि धनिनां परोऽपि स्वजनायते।
स्वजनोऽपि दरिद्राणां सर्वदा दुर्जनायते।।”

भावार्थ :- इस संसार में धनिकों के लिए पराया व्यक्ति भी अपना हो जाता है
और निर्धनों के मामले में तो अपने लोग भी दुर्जन हो जाते हैं ।


” नैकयान्यस्त्रिया कुर्याद् यानं शयनमासनम्।
लोकाप्रासादकं सर्वं दृष्ट्वा पृष्ट्वा च वर्जयेत् ॥”

भावार्थ :- अकेली परायी स्त्री के साथ-साथ वाहन पर बैठने, लेटने और
आसन ग्रहण करने का कार्य न करे । गौर से देखकर तथा औरों से
पूछकर उन बातों से बचे जो आम लोगों को अप्रिय लगती हों।
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” वाच्यावाच्यं प्रकुपितो न विजानाति कर्हिचित्।
नाकार्यमस्ति क्रुद्धस्य नावाच्यं विद्यते क्वचित् ॥”

भावार्थ :- गुस्से से भरा मनुष्य को किसी भी समय क्या कहना चाहिए
और क्या नहीं का ज्ञान नहीं रहता है। ऐसे व्यक्ति के लिए कुछ भी
अकार्य नहीं होता है और न ही कहीं अवाच्य रह जाता है।
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” क्रुद्धः पापं न कुर्यात् कः क्रृद्धो हन्यात् गुरूनपि।
      क्रुद्धः परुषया वाचा नरः साधूनधिक्षिपेत्॥”

भावार्थ :- क्रोध से भरा हुआ कौन व्यक्ति पापकर्म नहीं कर बैठता है,
कुद्ध मनुष्य बड़े एवं पूज्य जनों को तक मार डालता है। ऐसा व्यक्ति
कटु वचनों से साधुजनों पर भी निराधार दोषरोपण करता है।
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” सहसा विदधीत न क्रियामविवेकः परमापदां पदम्।
  वृणुते हि विमृश्यकारिणं गुणलुब्धाः स्वयमेव सम्पदः ॥”

भावार्थ :- किसी कार्य को बिना सोचे-विचारे अनायास नहीं करना चाहिए। विवेकहीनता
आपदाओं का आश्रय स्थान होती है। अच्छी प्रकार से गुणों की लोभी संपदाएं विचार करने
वाले का स्वयमेव वरण करती हैं, उसके पास चली आती हैं ।
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” पृथिव्यां त्रीणि रत्नानि जलमन्नं सुभाषितम्।
   मूढै: पाषाणखण्डेषु रत्नसंज्ञा विधीयते ॥”

भावार्थ :- पृथ्वी पर तीन रत्न हैं जल,अन्न और सुन्दर वचन ।
मूर्खों के द्वारा पत्थर के टुकड़ों को ही रत्न की संज्ञा दी जाती है।
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” सत्यं ब्रूयात् प्रियं ब्रूयात् न ब्रूयात् सत्यमप्रियं।
     प्रियं च नानृतं ब्रूयात् एष धर्मः सनातनः॥”

भावार्थ :- सत्य बोलें, प्रिय बोलें पर अप्रिय सत्य न बोलें और प्रिय असत्य न बोलें, यही सनातन धर्म है।
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” मूर्खस्य पञ्च चिन्हानि गर्वो दुर्वचनं तथा।
    क्रोधश्च दृढवादश्च परवाक्येष्वनादरः॥”

भावार्थ :- मूर्खों के पाँच लक्षण हैं – गर्व, अपशब्द, क्रोध, हठ और दूसरों की बातों का अनादर करना ।
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” अतितॄष्णा न कर्तव्या तॄष्णां नैव परित्यजेत्।
शनै: शनैश्च भोक्तव्यं स्वयं वित्तमुपार्जितम् ॥”

भावार्थ :- अधिक इच्छाएं नहीं करनी चाहिए पर इच्छाओं का सर्वथा त्याग भी नहीं करना चाहिए अपने कमाये हुए धन का धीरे-धीरे उपभोग करना चाहिये।
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” उद्यमेनैव हि सिध्यन्ति,कार्याणि न मनोरथै।
      न हि सुप्तस्य सिंहस्य,प्रविशन्ति मृगाः॥”

भावार्थ :- प्रयत्न ( परिश्रम ) करने से ही कार्य सिद्ध होते हैं, केवल मन में इच्छा करने से नहीं,जैसे सोये हुए शेर के मुख में मृग स्वयं प्रवेश नहीं करते हैं।
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” विद्वत्वं च नृपत्वं च नैव तुल्य कदाचन्।
स्वदेशे पूज्यते राजा विद्वान् सर्वत्र पूज्यते॥”

भावार्थ :- विद्वान् और राजा की तुलना कभी नहीं हो सकती है,राजा को तो
अपने राज्य में ही सम्मान मिलता है पर विद्वान का सर्वत्र सम्मान होता है।


” वाणी रसवती यस्य,यस्य श्रमवती क्रिया ।
लक्ष्मी : दानवती यस्य,सफलं तस्य जीवितं ।।”

भावार्थ :- जिस मनुष्य की वाणी मीठी है, जिसका कार्य परिश्रम से युक्त है,
जिसका धन दान करने में प्रयुक्त होता है, उसका जीवन सफल है।
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” प्रदोषे दीपक : चन्द्र:,प्रभाते दीपक:रवि:।
त्रैलोक्ये दीपक:धर्म:,सुपुत्र: कुलदीपक:।।”

भावार्थ :- संध्या-काल मे चंद्रमा दीपक है, प्रातः काल में सूर्य दीपक है,
तीनो लोकों में धर्म दीपक है और सुपुत्र कुल का दीपक है।
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” प्रियवाक्य प्रदानेन सर्वे तुष्यन्ति जन्तवः ।
तस्मात तदैव वक्तव्यम वचने का दरिद्रता।।”

भावार्थ :- प्रिय वाक्य बोलने से सभी जीव संतुष्ट हो जाते हैं,
अतः प्रिय वचन ही बोलने चाहिएं। ऐसे वचन बोलने में दरिद्रता कैसी।
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” सेवितव्यो महावृक्ष: फ़लच्छाया समन्वित:।
यदि देवाद फलं नास्ति,छाया केन निवार्यते।।”

भावार्थ :- विशाल वृक्ष की सेवा करनी चाहिए क्योंकि वो फल और छाया
दोनों से युक्त होता है। यदि दुर्भाग्य से फल नहीं हैं तो छाया को भला कौन
रोक सकता है।
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” देवो रुष्टे गुरुस्त्राता गुरो रुष्टे न कश्चन:।
गुरुस्त्राता गुरुस्त्राता गुरुस्त्राता न संशयः।।”

भावार्थ :- भाग्य रूठ जाए तो गुरु रक्षा करता है, गुरु रूठ जाए तो कोई नहीं होता।
गुरु ही रक्षक है, गुरु ही रक्षक है, गुरु ही रक्षक है, इसमें कोई संदेह नहीं।
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” अनादरो विलम्बश्च वै मुख्यम निष्ठुर वचनम्।
         पश्चतपश्च पञ्चापि दानस्य दूषणानि च।।”

भावार्थ :- अपमान,(अनादर ) करके दान देना, विलंब (देर ) से देना, मुख फेर के देना,
कठोर वचन बोलना और देने के बाद पश्चाताप करना- ये पांच क्रियाएं दान को दूषित कर देती हैं।
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” दुर्जन:परिहर्तव्यो विद्यालंकृतो सन ।
मणिना भूषितो सर्प:किमसौ न भयंकर:।।”

भावार्थ :- दुष्ट व्यक्ति यदि विद्या से सुशोभित ( अलंकृत ) भी हो अर्थात वह विद्यावान भी होतो भी उसका परित्याग कर देना चाहिए। जैसे मणि से सुशोभित सर्प क्या भयंकर नहीं होता ?
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” हस्तस्य भूषणम दानम, सत्यं कंठस्य भूषणं।
    श्रोतस्य भूषणं शास्त्रम,भूषनै:किं प्रयोजनम।।”

भावार्थ :- हाथ का आभूषण दान है, गले का आभूषण सत्य है, कान का आभूषण शास्त्रों का सुनना है,इन सबों के होते हुए अन्य आभूषणों की क्या आवश्यकता है।
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” यस्य नास्ति स्वयं प्रज्ञा, शास्त्रं तस्य करोति किं।
   लोचनाभ्याम विहीनस्य, दर्पण:किं करिष्यति।।”

भावार्थ :- जिस मनुष्य के पास स्वयं का विवेक नहीं है, शास्त्र उसका क्या करेंगे।
जैसे नेत्रविहीन व्यक्ति के लिए दर्पण व्यर्थ है।

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” न कश्चित कस्यचित मित्रं न कश्चित कस्यचित रिपु:
          व्यवहारेण जायन्ते, मित्राणि रिप्वस्तथा।।”

भावार्थ :- न कोई किसी का मित्र होता है, न कोई किसी का शत्रु। व्यवहार से ही मित्र या शत्रु बनते हैं या जाने जाते हैं।
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” दुर्जन:स्वस्वभावेन परकार्ये विनश्यति।
नोदर तृप्तिमायाती मूषक:वस्त्रभक्षक:।।”

भावार्थ :- दुष्ट व्यक्ति का स्वभाव ही दूसरे के कार्य बिगाड़ने का होता है।
वस्त्रों को काटने वाला चूहा पेट भरने के लिए कपड़े नहीं काटता।
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” काव्यशास्त्रविनोदेन कालो गच्छति धीमतां।
     व्यसनेन च मूर्खाणां निद्रया कलहेन वा।।”

भावार्थ :- बुद्धिमान लोग काव्य-शास्त्र का अध्ययन करने में अपना समय व्यतीत करते हैं,जबकि मूर्ख लोग निद्रा, कलह और बुरी आदतों में अपना समय बिताते हैं।
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” भूमे:गरीयसी माता,स्वर्गात उच्चतर:पिता।
  जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गात अपि गरीयसी।।”

भावार्थ :- भूमि से श्रेष्ठ माता है, स्वर्ग से ऊंचे पिता हैं, माता और मातृभूमि स्वर्ग से भी श्रेष्ठ हैं।
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” शैले शैले न माणिक्यं,मौक्तिम न गजे गजे।
      साधवो नहि सर्वत्र,चंदन न वने वने।।”

भावार्थ :- प्रत्येक पर्वत पर अनमोल रत्न मणि नहीं होते, प्रत्येक हाथी के मस्तक में मोती नहीं होता। सज्जन लोग सब जगह नहीं होते और प्रत्येक वन में चंदन नही पाया जाता ।
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” न विना परवादेन रमते दुर्जनोजन:।
काक:सर्वरसान भुक्ते विनामध्यम न तृप्यति।।”

भावार्थ :- लोगों की निंदा किये बिना दुष्ट व्यक्तियों को आनंद नहीं आता।
जैसे कौवा सब रसों का भोग करता है परंतु गंदगी के बिना उसकी तृप्ति नहीं होती।
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” सुखार्थिनः कुतोविद्या नास्ति विद्यार्थिनः सुखम्।
सुखार्थी वा त्यजेद् विद्यां विद्यार्थी वा त्यजेत् सुखम्।।”

भावार्थ :- जिसे सुख की अभिलाषा हो उसे विद्या कहाँ से ? और विद्यार्थी को सुख कहाँ ?
सुख की ईच्छा रखनेवाले को विद्या की आशा छोड़ देनी चाहिए, और विद्यार्थी को सुख की इच्छा।
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” न चोरहार्यं न च राजहार्यं न भ्रातृभाज्यं न च भारकारी।
   व्यये कृते वर्धते एव नित्यं विद्याधनं सर्वधन प्रधानम् ॥”

भावार्थ :- विद्यारुपी धन को कोई चोर चुरा नहीं सकता, राजा ले नहीं सकता,
भाईयों में उसका विभाजन नहीं हो सकता और विद्या भार युक्त होता है ,
विद्या धन खर्च करने से नित्य दिन बढ़ता है । सचमुच, विद्यारुपी धन सर्वश्रेष्ठ है ।
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” नास्ति विद्यासमो बन्धुर्नास्ति विद्यासमः सुहृत् ।
  नास्ति विद्यासमं वित्तं नास्ति विद्यासमं सुखम् ॥”

भावार्थ :- विद्या जैसा बंधु नहीं, विद्या जैसा मित्र नहीं, विद्या जैसा अन्य कोई धन या सुख नहीं ।
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” विद्या नाम नरस्य रूपमधिकं प्रच्छन्नगुप्तं धनम् विद्या भोगकरी यशः सुखकरी विद्या गुरूणां गुरुः ।
विद्या बन्धुजनो विदेशगमने विद्या परं दैवतम् विद्या राजसु पूज्यते न हि धनं विद्याविहीनः पशुः ॥”

भावार्थ :- विद्या मनुष्य का विशिष्ट रुप है, गुप्त धन है ,वह भोग देनेवाली, यश देने वाली और सुखकारक है ।विद्या गुरुओं का गुरु है, विदेश में वह भाई के समान है । विद्या बड़ी देवता है; राजाओं में विद्या की पूजा होती है,धन की नहीं । इसलिए विद्याविहीन पशु के समान है।

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” सत्येन धार्यते पृथ्वी सत्येन तपते रविः।
सत्येन वायवो वान्ति सर्वं सत्ये प्रतिष्ठितम् ॥”

भावार्थ :- सत्य से पृथ्वी का धारण होता है, सत्य से सूर्य तपता है, सत्य से पवन चलता है । सब सत्य से ही प्रतिष्ठित है।
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” सत्यमेव जयते नानृतम् सत्येन पन्था विततो देवयानः।
येनाक्रमत् मनुष्यो ह्यात्मकामो यत्र तत् सत्यस्य परं निधानं ॥”

भावार्थ :-जीत सत्य की होती है, असत्य की नहीं। दैवी मार्ग सत्य से फैला हुआ है ।
जिस मार्ग पे जाने से मनुष्य आत्मकाम बनता है, वही सत्य का परम् धाम है ।


” प्रथमेनार्जिता विद्या द्वितीयेनार्जितं धनं।
तृतीयेनार्जितः कीर्तिः चतुर्थे किं करिष्यति।।”

भावार्थ :- जिसने प्रथम ब्रह्मचर्य आश्रम में विद्या अर्जित नहीं की,
द्वितीय गृहस्थ आश्रम में धन अर्जित नहीं किया, तृतीय वानप्रस्थ
आश्रम में कीर्ति अर्जित नहीं की, वह चतुर्थ संन्यास आश्रम
में क्या करेगा ?


” ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्।।”

भावार्थ :- उस प्राणस्वरूप, दुःखनाशक, सुखस्वरूप, श्रेष्ठ, तेजस्वी, पापनाशक,
देवस्वरूप परमात्मा को हम अंत:करण में धारण करें। वह परमात्मा हमारी बुद्धि
को सन्मार्ग में प्रेरित करे।
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” उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत।।
क्षुरस्य धारा निशिता दुरत्यया दुर्गं पथस्तत्कवयो वदन्ति।।”

भावार्थ :- (हे मनुष्यों) उठो, जागो, सचेत हो जाओ। श्रेष्ठ ज्ञानी पुरुषों को प्राप्त करके ज्ञान प्राप्त करो। त्रिकालदर्शी ज्ञानी पुरुष उस पथ को छुरे की तीक्ष्ण धार के के सदृश दुर्गम कठिन हैं ऐसा कहा गया है।
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” विद्या मित्रं प्रवासेषु भार्या मित्रं गृहेषु च।
रुग्णस्य चौषधं मित्रं धर्मो मित्रं मृतस्य च।।”

भावार्थ :- प्रवास की मित्र विद्या, घर की मित्र पत्नी, मरीजों की मित्र औषधि और मृत्योपरांत मित्र धर्म ही होता है।
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” ॐ असतो मा सद्गमय। तमसो मा ज्योतिर्गमय। मृत्योर्मामृतं गमय।।”

भावार्थ :- हे ईश्वर मुझे असत्य से सत्य की ओर ले चलो। अंधकार से प्रकाश की ओर ले चलो।
मृत्यु से अमरता की ओर ले चलो।
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” ॐ सह नाववतु। सह नौ भुनक्तु। सह वीर्यं करवावहै। तेजस्विनावधीतमस्तु मा विद्विषावहै।।”

भावार्थ :- परमेश्वर हम शिष्य और आचार्य दोनों की साथ-साथ रक्षा करें, हम दोनों को साथ-साथ विद्या के फल का भोग कराए, हम दोनों एक साथ मिलकर विद्या प्राप्ति का सामर्थ्य प्राप्त करें, हम दोनों का पढ़ा हुआ तेजस्वी हो, हम दोनों परस्पर द्वेष न करें।
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” मा भ्राता भ्रातरं द्विक्षन्‌, मा स्वसारमुत स्वसा। सम्यञ्च: सव्रता भूत्वा वाचं वदत भद्रया।।”

भावार्थ :- भाई, भाई से द्वेष न करें, बहन, बहन से द्वेष न करें, समान गति से एक-दूसरे का आदर- सम्मान करते हुए परस्पर मिल-जुलकर कर्मों को करने वाले होकर अथवा एकमत से प्रत्येक कार्य करने वाले होकर भद्रभाव से परिपूर्ण होकर संभाषण करें।
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” यथा द्यौश्च पृथिवी च न बिभीतो न रिष्यतः। एवा मे प्राण मा विभेः।।”

भावार्थ :- जिस प्रकार आकाश एवं पृथ्वी न भयग्रस्त होते हैं और न इनका नाश होता है,
उसी प्रकार हे मेरे प्राण! तुम भी भयमुक्त रहो।
( अर्थात व्यक्ति को कभी किसी भी प्रकार का भय नहीं पालना चाहिए। भय से जहां शारीरिक रोग उत्पन्न होते हैं वहीं मानसिक रोग भी जन्मते हैं। डरे हुए व्यक्ति का कभी किसी भी प्रकार का विकास नहीं होता। संयम के साथ निर्भिकता होना जरूरी है। डर सिर्फ ईश्वर का रखें।
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” शरीरमाद्यं खलु धर्मसाधनम्।। “

भावार्थ :- शरीर ही सभी धर्मों को पूरा करने का साधन है।
( अर्थात : शरीर को सेहतमंद बनाए रखना जरूरी है। इसी के होने से सभी का होना है
अत: शरीर की रक्षा और उसे निरोगी रखना मनुष्य का सर्वप्रथम कर्तव्य है। पहला सुख निरोगी काया। )
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” येषां न विद्या न तपो न दानं, ज्ञानं न शीलं न गुणो न धर्मः ।
ते मृत्युलोके भुवि भारभूता, मनुष्यरूपेण मृगाश्चरन्ति।।”

भावार्थ :- जिनके पास न विद्या, न तप,न दान, किसी प्रकार का ज्ञान है, न शील है,
न गुण है और न धर्म है। ऐसे मनुष्य इस धरती पर भार स्वरूप हैं और मनुष्य रूप
में होते हुए भी पशु के समान जीवन व्यतीत करते हैं।


” स्वभावो नोपदेशेन शक्यते कर्तुमन्यथा |
सुतप्तमपि पानीयं पुनर्गच्छति शीतताम् ||”

भावार्थ :- किसी व्यक्ति को आप चाहे कितनी ही सलाह दे दो किन्तु उसका मूल स्वभाव नहीं बदलता,ठीक उसी
तरह जैसे ठन्डे पानी को उबालने पर तो वह गर्म हो जाता है लेकिन बाद में वह पुनः ठंडा हो जाता है।
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” अनाहूतः प्रविशति अपृष्टो बहु भाषते |
  अविश्वस्ते विश्वसिति मूढचेता नराधमः ||”

भावार्थ :- किसी जगह पर बिना बुलाये चले जाना, बिना पूछे बहुत अधिक बोलते रहना, जिस चीज या
व्यक्ति पर विश्वास नहीं करना चाहिए उस पर विश्वास करना मुर्ख लोगो के लक्षण होते है।
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” यथा चित्तं तथा वाचो यथा वाचस्तथा क्रियाः|
    चित्ते वाचि क्रियायांच साधुनामेक्रूपता ||”

भावार्थ :- अच्छे लोग वही बात बोलते है जो उनके मन में होती है। अच्छे लोग जो बोलते है वही करते है।
ऐसे पुरुषो के मन, वचन व कर्म में समानता होती है।


” षड् दोषाः पुरुषेणेह हातव्या भूतिमिच्छता।
निद्रा तद्रा भयं क्रोधः आलस्यं दीर्घसूत्रता।।”

भावार्थ :- किसी व्यक्ति के बर्वाद या नष्ट होने के 6 लक्षण होते है – नींद, तन्द्रा, भय,क्रोध, आलस्य
और काम को देर से करने की आदत या टालने की आदत।
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” द्वौ अम्भसि निवेष्टव्यौ गले बद्ध्वा दृढां शिलाम्।
धनवन्तम् अदातारम् दरिद्रं च अतपस्विनम्।।”

भावार्थ :- दो प्रकार के लोगो के गले में पत्थर बांधकर उन्हें समुद्र में फेंक देना चाहिए। पहले वे व्यक्ति जो
अमीर होते है पर दान नहीं करते और दूसरे वे जो गरीब होते है लेकिन कठिन परिश्रम नहीं करते।
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” यस्तु सञ्चरते देशान् सेवते यस्तु पण्डितान्।
तस्य विस्तारिता बुद्धिस्तैलबिन्दुरिवाम्भसि।।”

भावार्थ :- वह व्यक्ति जो अलग – अलग जगहों या देशो में घूमता है और विद्वानों की सेवा करता है उसकी बुद्धि
उसी तरह से बढती है जैसे तेल का बूंद पानी में गिरने के बाद फ़ैल जाता है।


” क्रोधाद्भवति सम्मोहः सम्मोहात्स्मृतिविभ्रमः।”
स्मृतिभ्रंशाद्बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति।।”

भावार्थ :- क्रोध से मनुष्य को मोह उत्पन्न होता है,मोह से स्मृति भ्रमित हो जाती है।
स्मृति भ्रम हो जाने से मनुष्य की बुद्धि नष्ट हो जाती है और बुद्धि के नाश हो जाने
से मनुष्य का नाश हो जाता है।


” यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जनः।
स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते ।।”

भावार्थ :- श्रेष्ठ पुरुष जैसा आचरण यानि जिस तरह कार्य करते हैं,दूसरे आम मनुष्य भी
वैसा ही आचरण यानि कार्य करते हैं। श्रेष्ठ पुरुष जो प्रमाण या उदाहरण प्रस्तुत करते हैं,
समस्त मानव समुदाय भी उसी का अनुसरण करते हैं।


” काव्यशास्त्रविनोदेन कालो गच्छति धीमताम्।
     व्यसनेन तु मूर्खाणां निद्रया कल्हण वा ।।”

भावार्थ :- बुद्धिमान लोगों का समय काव्य और शास्त्रों और साहित्य के अध्ययन में व्यतीत होता है,
जबकि मूर्खों का समय विभिन्न प्रकार के दुर्व्यसनों,घोर निद्रा या लड़ाई -झगड़े में व्यतीत होता है |


” लोभाविष्टो नरो वित्तं वीक्षते नैव चापदम्।
दुग्धं पश्यति मार्जारो तथा न लगुडाहतिम्।।”

भावार्थ :- लोभी मनुष्य केवल धन लाभ देखता है,संकट को नहीं देखता है।उसी प्रकार बिलाव को केवल दूध
दिखाई देता है डंडे का प्रहार दिखाई नहीं देता है।


” विद्यां ददाति विनयं विनयाद् याति पात्रताम् ।
पात्रत्वात् धनमाप्नोति धनात् धर्मं ततः सुखम् ॥”

भावार्थ :- विद्या हमें विनम्रता देती है, विनम्रता से योग्यता आती है और योग्यता से हमें धन प्राप्त होता है,
धन से धर्म की प्राप्ति होती है,उसके बाद सुख मिलता है ।


” माता शत्रुः पिता वैरी येन बालो न पाठितः ।
न शोभते सभामध्ये हंसमध्ये बको यथा ॥”

भावार्थ :- माता शत्रु है और पिता वैरी है,जिसने अपने बच्चों को नहीं पढ़ाया।
बुद्धिमानों की सभा में अनपढ़ व्यक्ति वैसे ही शोभा ( सम्मान ) नहीं पाते, जैसे हंसों के
बीच में बगुले।


” गुरुर्ब्रह्मा ग्रुरुर्विष्णुः गुरुर्देवो महेश्वरः ।
गुरुः साक्षात् परं ब्रह्म तस्मै श्री गुरवे नमः ॥”

भावार्थ :– गुरु ही ब्रह्मा हैं, गुरु ही विष्णु हैं, गुरु ही शंकर है; गुरु ही साक्षात परमब्रह्म हैं;उन गुरुओं को मेरा नमस्कार है।


” यथा ह्येकेन चक्रेण न रथस्य गतिर्भवेत।
एवं पुरुषकारेण विना दैवं न सिद्धयति।।”

भावार्थ  : – जैसे एक पहिये से रथ नहीं चल सकता है उसी प्रकार बिना परिश्रम के भाग्य सिद्ध नहीं हो सकता है।

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