मनुष्य की मानसिकता

                                           मनुष्य की मानसिकता

एक बार बस में सवार होकर बहुत से लोग अपने गंतव्य स्थान की ओर जा रहे थे कि अचानक एक दो बड़े झटकों के साथ तेज रफ़्तार के साथ बस एकाएक रुक गई। बस फिर क्या था सभी यात्री उस ड्राइवर पर बरस पड़े।
                 ड्राइवर की स्थिति इस कदर ख़राब हो गई थी और पसीने से तर बतर था कि बोलने में उसे बहुत जोर लगाना पड़ रहा था ,फिर भी ठीक तरह से बोलने में अपने आपको असमर्थ पा रहा था । बड़ी मुश्किल से ड्राइवर बता पाया कि ब्रेक फेल हो गए थे,और मैं एक किलोमीटर पहले से किसी तरह बस को सँभालते हुए यहाँ पर रोकना ठीक समझा और ———-सभी लोग बच पाए ! ड्राइवर की बातें सुनकर सबके सब भौचक्के रह गए और उसकी भूरी – भूरी प्रशंसा करने लगे ——-!
          मगर थोड़ी देर में यात्रियों का ज्ञान जागृत हो गया और अपनी ज्ञान गंगा को बाहर निकालते हुए बोलने लगा —
उनमें से एक यात्री बोलता है अगर यहाँ तक ले आये तो धीरे – धीरे घर तक ही ले आता ——–!
दूसरा : मैं तो बाइक निकालने से पहले ब्रेक चेक करता हूँ ——-!
तीसरा : अब हमारे रहने खाने ,दारु मुर्गा का इंतजाम इस ड्राइवर को ही करना पड़ेगा ——-!
चौथा : टिकटों के पैसे का हिसाब दो यहाँ तक कितना लगा ,और कितना बचा ——-!
पांचवां : मेरी बीबी का आज जन्म दिन है ,अब तो मेरी खैर नहीं ———!
छठा : आज मुझे बीबी के साथ सिनेमा जाना था ,अब तो मुझे भगवान् भी नहीं बचा पायेगा ——–!
        यह सब सुनकर ड्राइवर सोच रहा था कि वैसे तो ये सब के सब हरामखोर बचाये जाने के लायक नहीं हैं ,मगर मुझे तो अपना फर्ज निभाना ही है।
आज अपने देश की हालत कुछ ऐसी ही है। देश की मौजूदा हालत को समर्पित ———–!!

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