लघुकथा – वृक्ष ने कहा डाॅ० मेहता नागेन्द्र सिंह
होली की रात।सारा गाँव छककर खाया-पीया।देर रात तक उछला-कूदा।ढोल-मृदंग के ताल पर जोगिरा भी गाया और रात के अन्तिम पहर,भाँग के नशे में धुत्त होकर सोने चला गया।
अचानक भूकम्प का एक शक्तिशाली झटका आया। क्षणभर में सारा गाँव खंडहर में बदल गया। जन-जानवर मर-पछड़कर धाराशाही हो गये।बारिश भी खूब जोरों से होने लगी। आँधी-तूफान का भयंकर रूप बड़ा डरावना सा दिखा,जो इस संकट में, आग में घी जैसा का कर रहा था।
इने-गिने लोग ही बच पाये,जो किसी तरह एक वटवृक्ष के नीचे आकर बैठ पाये। थरथराते शरीर को संभालते हुए भगवान की दुहाई गाने लगे। बीच-बीच में इस अनहोनी का कारण भी ढ़ूढ़ते लगे। किसी एक ने कहा-‘ गाँव पर शीतला मैया का प्रकोप चढ़ गया है, बकरे की बलि चाहिये।’ दूसरे ने कहा -‘ नहीं भाई, काली-मंदिर का पुजारी भ्रष्ट हो गया है, भोली भक्ततिनों पर बुरी नज़र रखे रहता है।’ इसपर तीसरे ने कह-‘अरे नहीं भाई ,यह दुर्दिन मुखिया के दुष्कर्म का फल है। करे कोई,भरे कोई। जितने मुँह उतनी बातें।त्राहि-त्राहि…।
त्राहि-त्राहि के इस रट के बीच वटवृक्ष ने कहा-” नहीं दुखियारों, ऐसी-वैसी बात नही है। यह वनदेवी का क्रोध और प्रकोप है। कल तुम्हारे कुछ मनचलों ने ‘होलिका-दहन’ के लिये जंगल से शिशु- वृक्षों को काट लाया था।”
@ डाॅ० मेहता नागेन्द्र सिंह
0/50, डॉक्टर्स कॉलोनी, कंकड़बाग, पटना
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