कबीर दास जी जीवनी एवं काव्य सौंदर्य
—————————————
भक्तिकालीन समस्त कवियों में से संत कवि कबीर का व्यक्तित्व अनुपम शौर्य -प्रभा से मंडित हैं। दिव्य – आलोक किरणों ने इनके व्यक्तित्व को चमत्कृत किया है और ज्ञान की अजस्र प्रभा ज्योति ने इनके कृतित्व को गौरव प्रदान किया है।ऐसे महान कवि और रहस्यवादी कवि के जन्म एवं मृत्यु के वर्षों का स्पष्ट वर्णन नहीं है,किन्तु इतिहासकारों का मानना है कि कबीरदास जी का जन्म 1440 ईस्वी में ज्येष्ठ पूर्णिमा के दिन हुआ था।कुछ लोगों के अनुसार कबीर दास जी का जन्म एक विधवा ब्राह्मणी के गर्भ से हुआ था,किन्तु उसने लोकलाज के भय से नवजात शिशु को लहरतारा नमक तालाब के पास फेंक आयी।पास से गुजर रहे एक मुस्लिम दम्पति नीरू और नीमा ने उस बालक को अपने संतान के रूप में लालन – पालन किया,जो बड़ा होकर कबीर के नाम से विख्यात हुआ।कबीर दास जी के गुरु रामानंद जी माने जाते हैं जिनके संपर्क में आने से उन्हें हिन्दू धर्म का ज्ञान हुआ।इसी कारण कबीर दास का झुकाव भक्ति वैष्णव वाद के प्रति दृष्टिगोचर प्रतीत होता है।
कबीर का जीवन शांतिमय था और वे अहिंसा,सत्य,सदाचार आदि गुणों के प्रसंशक थे।कबीर का पूरा जीवन काशी में ही गुजरा,किन्तु अंतिम समय में वे मगहर चले गए, जहँ उनकी जीवन लीला 119 वर्ष की अवस्था में समाप्त हुई।
इनके महान विराट व्यक्तित्व और महान कृति का मूल्याङ्कन करते हुए आधुनिक आलोचना साहित्य के मूर्धन्य विद्वान डॉक्टर हजारी प्रसाद द्विवेदी ने इन्हें भक्तिकाल का सर्वाधिक विद्रोही कवि माना है।वास्तव में कबीर दास जी अपने समय के सबसे अधिक प्रखर एवं स्पष्ट वक्ता थे।उन्होंने बड़ी निर्भीकता के साथ धार्मिक क्षेत्र में परिवर्तित बाह्याचार मूलक अंधविश्वासों और रूढ़ियों का खंडन किया।उन्होंने हिन्दुओं, मुसलमानों एवं अन्य सम्प्रदाओं के प्रति समान दृष्टि कोण रखा ;किन्तु हिन्दू और मुसलमानों को अपनी मुखर वाणी से खूब लताड़ा भी। कबीर दास जी ने हिन्दुओं में अपने को श्रेष्ठ मानने वाले ब्राह्मणों एवं मुसलमानों को के लिए इन पंक्तियों के माध्यम से सच्चे तत्त्वों से अवगत कराया —
” जो तू बाभन बाभणी जाया, और राह तू काहे न आया।
जो तू तुरक तुरकणी जाया,पेट काहे न सुन्नत कराया।।”
कबीर दास जी वाणी की तीव्रता और गंभीरता प्रशंसनीय है ,जो मुल्ला और पंडितों के को तिलमिला देने में समर्थ है-
” पाथर पूजे हरि मिले तो,
मैं पूजूँ पहार।
याते वा चाकी भली,
पिस खाय संसार।”
और —
” काँकड़ पाथर जोरिके,
मसजिद लियो बनाय।
ता चढ़ि मुल्ला बाँग दे,
बहिरो भयो खुदाय।”
कबीर दास जी ने आत्म शुद्धि और आत्म ज्ञान को ही जीवन का सारभूत सत्य माना है।निर्मल चित्त और पवित्र हृदय में ही ईश्वर निवास करते हैं और आत्म बोध के अभाव में धर्मांध भक्त ईश्वर को यत्र – तत्र तीर्थों में खोजते हैं-
” मुझको कहाँ ढूंढे बन्दे,
मैं तो तेरे पास में।
नामैं छुरी नामैं गरासा,
नामैं काबा कैलास में ।”
और —
” पानी बिच मीन पियासी।
मुझको सुन सुन लगत हांसी।
आतम गियान बिना सब सूना,
क्या मथुरा क्या काशी।।”
कबीर दास जी प्रेम को अमर तत्त्व माना है और उन्होंने प्रेम का ज्ञाता ही वेद ज्ञाता पंडितों से श्रेष्ठ है–
” पोथी पढ़ – पढ़ जग मुआ,
पंडित भया न कोय।
ढाई आखर प्रेम का,
पढ़ै सो पंडित होय ।।”
कबीर दास जी की काव्य साधना अनुपम और वरेण्य है।उन्होंने अपनी अमृत तुल्य शहद वाणी से निर्बल भारतीय जन-जीवन में अपार आत्म शक्ति का संचार किया है जो युगों -युगों तक उनका व्यक्तित्व और कृतित्व हिंदी साहित्य में अनुलंघ्य ,किन्तु सर्वथा वंदनीय और पूज्य रहेगा।
कबीर दास जी दोहे
” बुरा जो देखन मैं चला, बुरा न मिलिया कोय|
जो दिल खोजा आपना, मुझसे बुरा न कोय।”
अर्थ: – जब मैं इस संसार में बुराई खोजने चला तो मुझे कोई बुरा न मिला और जब मैंने
अपने मन के अंदर झाँक कर देखा तो पाया कि मुझसे बुरा कोई नहीं है।
” पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुआ, पंडित भया न कोय,
ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय।”
अर्थ :- बड़ी बड़ी पुस्तकें पढ़ कर संसार में कितने ही लोग मृत्यु के मुख में समां गए, पर सभी विद्वान न हो सके। कबीर मानते हैं कि यदि कोई प्रेम या प्यार के केवल ढाई अक्षर ही अच्छी तरह पढ़ ले, अर्थात प्यार का वास्तविक रूप पहचान ले तो वही सच्चा ज्ञानी होगा।
” साधु ऐसा चाहिए, जैसा सूप सुभाय,
सार-सार को गहि रहै, थोथा देई उड़ाय।”
अर्थ :- इस संसार में ऐसे सज्जनों की जरूरत है जैसे अनाज साफ़ करने वाला सूप होता है,
जो सार्थक को बचा लेते है और निरर्थक को उड़ा देते हैं।
” तिनका कबहुँ ना निन्दिये, जो पाँवन तर होय,
कबहुँ उड़ी आँखिन पड़े, तो पीर घनेरी होय।”
अर्थ :- कबीर कहते हैं कि एक छोटे से तिनके की भी कभी निंदा न करो जो तुम्हारे पांवों के नीचे होता है।
यदि कभी वह तिनका उड़कर आँख में पद जाये, तो बहुत गहरी पीड़ा होती है |
” धीरे-धीरे रे मना, धीरे सब कुछ होय,
माली सींचे सौ घड़ा, ॠतु आए फल होय।”
अर्थ :- मन में धीरज रखने से सब कुछ होता है। अगर कोई माली किसी पेड़ को सौ घड़े पानी से सींचने लगे
तब भी फल तो ऋतु आने पर ही फल लगेंगे।
” माला फेरत जुग भया, फिरा न मन का फेर,
कर का मनका डार दे, मन का मनका फेर।”
अर्थ :- लम्बे समय तक हाथ में लेकर मोती की माला तो फेरता है, पर उसके मन का भाव नहीं बदलता, उसके मन शांत नहीं होता। कबीर की ऐसे व्यक्ति को सलाह है कि हाथ की इस माला को फेरना छोड़ कर मन के मोतियों को बदले या फेरे।
” जाति न पूछो साधु की, पूछ लीजिये ज्ञान,
मोल करो तरवार का, पड़ा रहन दो म्यान।”
अर्थ :- सज्जनों की जाति न पूछ कर उसके ज्ञान को समझना चाहिए। तलवार का मूल्य होता है न कि तलवार को ढकने वाले म्यान का।
” दोस पराए देखि करि, चला हसन्त हसन्त,
अपने याद न आवई, जिनका आदि न अंत।”
अर्थ : – मनुष्य का स्वभाव है कि जब वह दूसरों के दोष को देख कर हंसता है, तब उसे अपने दोष याद नहीं आते,जिनका न आदि है न अंत।
” जिन खोजा तिन पाइया, गहरे पानी पैठ,
मैं बपुरा बूडन डरा, रहा किनारे बैठ।”
अर्थ :- जो प्रयत्न करते हैं, वे कुछ न कुछ वैसे ही पा लेते हैं, जैसे कोई मेहनत करने वाला गोताखोर गहरे पानी में जाता है और कुछ न कुछ ले कर ही आता है, लेकिन कुछ बेचारे लोग ऐसे भी होते हैं जो डूबने के भय से किनारे पर ही बैठे रह जाते हैं और कुछ नहीं पाते।
” बोली एक अनमोल है, जो कोई बोलै जानि,
हिये तराजू तौलि के, तब मुख बाहर आनि।”
अर्थ :- वाणी एक अमूल्य रत्न है जो कोई सही तरीके से बोलना जनता है। हृदय रूप तराजू में तौलकर ही उसे मुंह से बाहर आने देते हैं|
” अति का भला न बोलना, अति की भली न चूप,
अति का भला न बरसना, अति की भली न धूप।”
अर्थ :- न अधिक बोलना अच्छा है, न ही जरूरत से ज्यादा चुप रहना ही ठीक है। जैसे बहुत
अधिक वर्षा भी अच्छी नहीं होती और बहुत अधिक धूप भी अच्छी नहीं होती हैं।
” निंदक नियरे राखिए, ऑंगन कुटी छवाय,
बिन पानी, साबुन बिना, निर्मल करे सुभाय।”
अर्थ : – निंदक को अपने पास में रखना चाहिए संभव हो तो अपने आँगन में ही
कुटिया बनाकर उनके रहने की व्यवस्था कर देनी चाहिए, वह बिना साबुन
और पानी के हमारी कमियां बता कर हमारे स्वभाव को साफ़ करता है।
” दुर्लभ मानुष जन्म है, देह न बारम्बार,
तरुवर ज्यों पत्ता झड़े, बहुरि न लागे डार।”
अर्थ :- इस संसार में मनुष्य के रूप में जन्म मुश्किल से मिलता है। यह मानव शरीर उसी तरह बार-बार नहीं मिलता जैसे वृक्ष से पत्ता झड़ जाए तो दोबारा डाल पर नहीं लगता।
” कबीरा खड़ा बाज़ार में, मांगे सबकी खैर,
ना काहू से दोस्ती,न काहू से बैर।”
अर्थ :- कबीर दास जी इस संसार में आकर अपने जीवन में बस यही चाहते हैं कि सबका
भला हो और संसार में यदि किसी से दोस्ती नहीं तो दुश्मनी भी न हो |
” हिन्दू कहें मोहि राम पियारा, तुर्क कहें रहमाना,
आपस में दोउ लड़ी-लड़ी मुए, मरम न कोउ जाना।”
अर्थ :- कबीर कहते हैं कि हिन्दू को राम प्यारा है और मुसलमान को रहमान प्यारा है।
इसी बात पर दोनों लड़-लड़ कर मौत के मुंह में जा पहुंचे, तब भी दोनों में से कोई सच
को न जान पाया।
” कहत सुनत सब दिन गए, उरझि न सुरझ्या मन।
कही कबीर चेत्या नहीं, अजहूँ सो पहला दिन।”
अर्थ :- कहते सुनते सब दिन निकल गए, पर यह मन उलझ कर न सुलझ पाया।
कबीर कहते हैं कि अब भी यह मन में चेतना नहीं आया, आज भी मन की दशा
पहले दिन के समान ही है।
” कबीर लहरि समंद की, मोती बिखरे आई।
बगुला भेद न जानई, हंसा चुनी-चुनी खाई।”
अर्थ :- कबीर कहते हैं कि समुद्र की लहरों से मोती आकर बिखर गए। बगुला उनका भेद नहीं जानता, परन्तु
हंस उन्हें चुन-चुन कर खा रहा है। किसी भी वस्तु का महत्व जानकार ही जानते हैं और फायदा उठाते हैं।
” जब गुण को गाहक मिले, तब गुण लाख बिकाई,
जब गुण को गाहक नहीं, तब कौड़ी बदले जाई।”
अर्थ :- कबीर दास जी कहते हैं कि गुण को परखने वाला ग्राहक मिल जाता है गुण की कीमत होती है,
किन्तु जब गन को परखने वाला ग्राहक नहीं मिलता, तब गुण कौड़ी के भाव बिक जाता है।
” कबीर कहा गरबियो, काल गहे कर केस।
ना जाने कहाँ मारिसी, कै घर कै परदेस।”
अर्थ :- कबीर कहते हैं कि हे मानव ! तू क्या गर्व करता है? काल अपने हाथों में तेरे केश पकड़े हुए है। मालूम नहीं, वह घर या परदेश में, कहाँ पर तुझे मार डाले।
” पानी केरा बुदबुदा, अस मानुस की जात।
एक दिना छिप जाएगा,ज्यों तारा परभात।”
अर्थ :- कबीर दास जी कहते हैं कि पानी के बुलबुले के समान मनुष्य का शरीर क्षणभंगुर है।
जैसे प्रभात होते ही तारे छिप जाते हैं, वैसे ही ये देह भी एक दिन नष्ट हो जाएगी।
” हाड़ जलै ज्यूं लाकड़ी, केस जलै ज्यूं घास।
सब तन जलता देखि करि, भया कबीर उदास।”
अर्थ :- कबीर दास जी कहते हैं कि यह नश्वर मानव देह अंत समय में लकड़ी की तरह जलती है और
केश घास की तरह जल उठते हैं। सम्पूर्ण शरीर को इस तरह जलता देख, इस अंत पर कबीर का मन
उदासी से भर जाता है।
” जो उग्या सो अन्तबै, फूल्या सो कुमलाहीं।
जो चिनिया सो ढही पड़े, जो आया सो जाहीं।”
अर्थ :- इस संसार का नियम यही है कि जिसका उदय हुआ है,वह अस्त भी होगा और जो खिला (विकसित हुआ) है ,वह मुरझाएगा भी ; साथ ही जो चिना गया है वह गिरेगा भी और जो आया है उसका जाना निश्चित है।
” झूठे सुख को सुख कहे, मानत है मन मोद।
खलक चबैना काल का, कुछ मुंह में कुछ गोद।”
अर्थ :- कबीर दास जी कहते हैं कि अरे जीव ! तू झूठे सुख को सुख कहता है और मन में प्रसन्न होता है ?
देख यह सारा संसार मृत्यु के लिए उस भोजन के समान है, जो कुछ तो उसके मुंह में है और कुछ गोद में
खाने के लिए रखा है।
” ऐसा कोई ना मिले, हमको दे उपदेस।
भौ सागर में डूबता, कर गहि काढै केस।”
अर्थ :- कबीर संसारी जनों के लिए दुखित होते हुए कहते हैं कि इन्हें कोई ऐसा मार्गदर्शक न मिला जो उन्हें
उपदेश देता और संसार सागर में डूबते हुए इन प्राणियों को अपने हाथों से केश पकड़ कर निकाल लेता।
” संत ना छाडै संतई, जो कोटिक मिले असंत।
चन्दन भुवंगा बैठिया, तऊ सीतलता न तजंत।”
अर्थ :- सज्जन पुरुष करोड़ों दुष्ट पुरुषों के मिलने पर भी अपनी सज्जनता जो उनका स्वभाव होता नहीं छोड़ता
जैसे चन्दन के पेड़ से सांप लिपटे रहते हैं, पर चन्दन का वृक्ष अपनी शीतलता नहीं छोड़ता।
” देह धरे का दंड है सब काहू को होय ।
ज्ञानी भुगते ज्ञान से अज्ञानी भुगते रोय॥”
अर्थ :- देह धारण करने का दंड निश्चित है, जो सब को भुगतना होता है। अंतर इतना है कि ज्ञानी या व्यक्ति इस भोग को समझदारी से भोगता है और संतुष्ट रहता है, जबकि अज्ञानी रोते हुए दुखी मन से जीवन बिताता है।
” हीरा परखै जौहरी शब्दहि परखै साध ।
कबीर परखै साध को ताका मता अगाध ॥”
अर्थ :- हीरे की परख जौहरी ही करता है,शब्द के सार को परखने वाला विवेकी साधु ही होता है। कबीर दास जी कहते हैं कि जिन्हें साधु–असाधु की परख है उसका मत – अधिक गहन गंभीर है ।
” एकही बार परखिये ना वा बारम्बार ।
बालू तो हू किरकिरी जो छानै सौ बार॥”
अर्थ :- कबीर दास जी कहते हैं कि किसी व्यक्ति को अच्छी तरह से एक बार परख लेने से उसे बार बार परखने की आवश्यकता न होगी। रेत को अगर सौ बार भी छाना जाए तो भी उसकी किरकिराहट दूर न होगी। दुर्जन को बार बार परखने पर अपनी दुष्टता से भरा हुआ ही मिलेगा, किन्तु सही व्यक्ति ( सज्जन ) की परख एक बार में ही हो जाती है|
“पतिबरता मैली भली गले कांच की पोत ।
सब सखियाँ में यों दिपै ज्यों सूरज की जोत ॥”
अर्थ : – पतिव्रता स्त्री यदि तन से मैली हो तो भी अच्छी है,चाहे उसके गले में केवल कांच के मोती की माला क्यों न हो।फिर भी वह अपनी सब सखियों के बीच सूर्य के तेज के समान चमकती रहती है।
” हाड जले लकड़ी जले जले जलावन हार ।
कौतिकहारा भी जले कासों करूं पुकार ॥”
अर्थ:- दाह क्रिया में हड्डियां जलती हैं उन्हें जलाने वाली लकड़ी जलती है उनमें आग लगाने वाला भी एक दिन जल जाता है। समय आने पर उस दृश्य को देखने वाला दर्शक भी जल जाता है। जब सब का अंत यही है तो किसको पुकारूं, किससे गुहार करूं ? सभी का अंत निश्चित है।
” रात गंवाई सोय कर दिवस गंवायो खाय ।
हीरा जनम अमोल था कौड़ी बदले जाय ॥”
अर्थ :- कबीर दस जी कहते हैं कि मनुष्य अनमोल जीवन को रात -रात सो कर बिता दी और दिन खाकर बिता दिया। हीरे के समान कीमती जीवन को संसार के भोग -विलास एवं कामनाओं और वासनाओं की भेंट चढ़ा दिया,इससे दुखद और क्या हो सकता है ?
” मन मैला तन ऊजला बगुला कपटी अंग ।
तासों तो कौआ भला तन मन एक ही रंग ॥”
अर्थ :- कबीर दस जी कहते हैं कि बगुले का शरीर तो सफ़ेद है पर मन कपट से भरा हुआ है। उससे तो कौआ भला है जिसका तन मन एक जैसा है और वह किसी को छलता भी नहीं है।
” कबीर हमारा कोई नहीं हम काहू के नाहिं ।
पारै पहुंचे नाव ज्यौं मिलिके बिछुरी जाहिं ॥”
अर्थ :- कबीर दस जी कहते हैं कि इस जगत में न कोई हमारा अपना है और न ही हम किसी के हैं। जैसे नांव से नदी पार करने पर उसमें मिलकर बैठे हुए सभी यात्री बिछुड़ जाते हैं,वैसे ही हम सब मिलकर बिछुड़ने वाले हैं। सब सांसारिक सम्बन्ध यहीं समाप्त हो जाने वाले हैं।
” जल में कुम्भ कुम्भ में जल है बाहर भीतर पानी ।
फूटा कुम्भ जल जलहि समाना यह तथ कह्यौ गयानी ॥”
अर्थ :- जब पानी भरने जाएं तो घड़ा जल में रहता है और भरने पर जल घड़े के अन्दर आ जाता है इस तरह देखें तो – बाहर और भीतर पानी ही रहता है। जब घडा फूट जाए तो उसका जल जल में ही मिल जाता है,अलगाव नहीं रहता।आत्मा परमात्मा में और परमात्मा आत्मा में विराजमान है। अंतत: परमात्मा की ही सत्ता है, जब देह विलीन होती है तो परमात्मा में ही समा जाती है, एकाकार हो जाती है।
” तू कहता कागद की लेखी मैं कहता आँखिन की देखी ।
मैं कहता सुरझावन हारि, तू राख्यौ उरझाई रे ॥”
अर्थ :- कबीर दास जी कहते हैं कि तुम कागज़ पर लिखी बात को सत्य मानते हो, किन्तु मैं आंखों देखा सच ही कहता हूँ। सरलता से हर बात को सुलझाया जा सकता है किन्तु मानव उलझा देते हैं ? जितने सरल बनोगे ,उलझन से उतने ही दूर अपने आप को पाओगे।
” मन के हारे हार है मन के जीते जीत ।
कहे कबीर हरि पाइए मन ही की परतीत ॥”
अर्थ :- कबीर दास जी कहते हैं कि जीवन में जय पराजय केवल मन की भावनाएं हैं। यदि मनुष्य मन में हार गया,निराश हो गया तो पराजय है और यदि उसने मन को जीत लिया तो वह विजेता है।
” जब मैं था तब हरि नहीं अब हरि है मैं नाहीं ।
प्रेम गली अति सांकरी जामें दो न समाहीं ॥”
अर्थ :- कबीर दास जी कहते हैं कि जब तक मन में अहंकार था तब तक ईश्वर का साक्षात्कार न हुआ। जब अहम समाप्त हुआ तभी प्रभु मिले। प्रेम में द्वैत भाव नहीं हो सकता – प्रेम की संकरी गली में एक ही समा सकता है – अहम् या परम। परम की प्राप्ति के लिए अहम् का विसर्जन आवश्यक है।
” पढ़ी पढ़ी के पत्थर भया लिख लिख भया जू ईंट ।
कहें कबीरा प्रेम की लगी न एको छींट॥”
अर्थ :- कबीर दास जी कहते हैं कि मनुष्य पढ़ लिख कर ज्ञान हासिल करके पत्थर सा कठोर हो जाए, ईंट जैसा निर्जीव हो जाए तो क्या पाया ? प्रेम की एक बूँद,एक छींटा भर जड़ता ( मूर्खता ) को मिटाकर मनुष्य को सजीव बना देता है।
” जाति न पूछो साधू की पूछ लीजिए ज्ञान ।
मोल करो तरवार को पडा रहन दो म्यान ॥”
अर्थ :- कबीर दास जी कहते हैं क़ि साधु की जाति न पूछो कि वह किस जाति का है ,साधु कितना ज्ञानी है यह जानना महत्वपूर्ण है। साधु की जाति म्यान के समान है और उसका ज्ञान तलवार की धार के समान है। तलवार की धार ही उसका मूल्य है ,उसकी म्यान तलवार के मूल्य को नहीं बढ़ाती।
” साधु भूखा भाव का धन का भूखा नाहीं ।
धन का भूखा जो फिरै सो तो साधु नाहीं ॥”
अर्थ :- साधु या सज्जन लोग भाव के भूखे होते हैं, धन के लोभी नहीं। जो धन का लोभी है वह तो साधु नहीं हो सकता ।
” पढ़े गुनै सीखै सुनै मिटी न संसै सूल।
कहै कबीर कासों कहूं ये ही दुःख का मूल ॥”
अर्थ :- बहुत सी पुस्तकों को पढ़ा गुना सुना सीखा ,पर फिर भी मन का संशय का काँटा न निकला। कबीरदस जी कहते हैं कि किसे समझा कर यह कहूं कि यह संशय ही सब दुखों की जड़ है। ऐसे पठन मनन से क्या लाभ जो मन का संशय न मिटा सके ?
” प्रेम न बाडी उपजे प्रेम न हाट बिकाई ।
राजा परजा जेहि रुचे सीस देहि ले जाई ॥”
अर्थ :- प्रेम खेत में नहीं उपजता, न ही बाज़ार में नहीं बिकता है। कोई राजा हो या साधारण प्रजा यदि प्यार पाना चाहते हैं तो वह आत्म बलिदान से ही मिलेगा। त्याग और बलिदान के बिना प्रेम को नहीं पाया जा सकता। प्रेम खरीदी बेचीं जाने वाली वस्तु नहीं है।
” कबीर सोई पीर है जो जाने पर पीर ।
जो पर पीर न जानई सो काफिर बेपीर ॥”
अर्थ :- कबीर कहते हैं कि सच्चा पीर या संत वही है जो दूसरे की पीड़ा को जानता है और जो दूसरों के दुःख को नहीं जानते वे बेदर्द निर्दयी हैं और काफिर हैं।
” कबीर तन पंछी भया, जहां मन तहां उडी जाइ।
जो जैसी संगती कर, सो तैसा ही फल पाइ।।”
अर्थ :- कबीर दास जी कहते हैं कि संसारी व्यक्ति का शरीर पक्षी बन गया है और जहां उसका मन होता है, शरीर उड़कर वहीं पहुँच जाता है। जो जैसी सङ्गति करता है, जैसा साथ करता है, वह वैसा ही फल पाता है।
” तन को जोगी सब करें, मन को बिरला कोई।
सब सिद्धि सहजे पाइए, जे मन जोगी होइ।।”
अर्थ :- कबीर दास जी कहते हैं कि शरीर में भगवे वस्त्र धारण करना आसान है, पर मन को योगी बनाना बिरले ही व्यक्ति कर पाते हैं। य़दि मन योगी हो जाए तो सारी सिद्धियाँ सहज ही प्राप्त हो जाती हैं।
” कबीर सो धन संचे, जो आगे को होय।
सीस चढ़ाए पोटली, ले जात न देख्यो कोय।।”
अर्थ :- कबीर दास जी कहते हैं कि उस धन को इकट्ठा करो जो भविष्य में काम आए। सर पर धन की गठरी बाँध कर ले जाते हुए इस संसार में तो किसी को नहीं देखा।
” माया मुई न मन मुआ, मरी मरी गया सरीर।
आसा त्रिसना न मुई, यों कही गए कबीर ।।”
अर्थ :- कबीर दास जी कहते हैं कि संसार में रहते हुए न माया मरती है न मन; किन्तु शरीर न जाने कितनी बार मर चुका होता है। परन्तु मनुष्य की आशा और तृष्णा कभी नहीं मरती। कबीर दास जी ऐसा कई बार कह चुके हैं।
” मन हीं मनोरथ छांड़ी दे, तेरा किया न होई।
पानी में घिव निकसे, तो रूखा खाए न कोई।।”
अर्थ :- कबीर दास जी कहते हैं कि मनुष्य को मन की इच्छाएं त्याग देनी चाहिए , मनुष्य अपने बूते पर पूर्ण नहीं कर सकते। यदि पानी को मथने से घी निकल आए, तो इस संसार में रूखी रोटी कोई न खाएगा।
” जब मैं था तब हरी नहीं, अब हरी है मैं नाही ।
सब अँधियारा मिट गया, दीपक देखा माही ।।”
अर्थ :- जब मैं अपने अहंकार में डूबा था , तब प्रभु को न देख पाता था; लेकिन जब गुरु ने ज्ञान का दीपक मेरे भीतर प्रकाशित किया, तब अज्ञान का सब अन्धकार मिट गया। ज्ञान की ज्योति से अहंकार ख़त्म हो गया और ज्ञान के आलोक में प्रभु को पा लिया ।
” कबीर सुता क्या करे, जागी न जपे मुरारी ।
एक दिन तू भी सोवेगा, लम्बे पाँव पसारी ।।”
अर्थ :- कबीर दास जी कहते हैं कि अज्ञान की नींद में सोए क्यों रहते हो? ज्ञान की जागृति को हासिल कर प्रभु का नाम लो। वह दिन दूर नहीं,जब तुम्हें गहन निद्रा में सो ही जाना है। प्रभु का नाम स्मरण क्यों नहीं करते ?
” आछे / पाछे दिन पाछे गए हरी से किया न हेत ।
अब पछताए होत क्या, चिडिया चुग गई खेत ।।”
अर्थ :- देखते ही देखते सब भले दिन गए, तुमने प्रभु से प्यार नहीं किया,समय बीत जाने पर पछताने से क्या मिलेगा ? पहले जागरूक नहीं रहने पर ठीक उसी तरह जैसे कोई किसान अपने खेत की रखवाली ही न करे और देखते ही देखते पंछी उसकी फसल बर्बाद कर जाएं।
” बड़ा हुआ तो क्या हुआ जैसे पेड़ खजूर।
पंछी को छाया नहीं फल लागे अति दूर ॥”
अर्थ :- खजूर के पेड़ के समान बड़ा होने का क्या लाभ, जो ना ठीक से किसी को छाया दे पाता है और न ही उसके फल सुलभ रूप से प्राप्त होते हैं।
” हरिया जांणे रूखड़ा, उस पाणी का नेह।
सूका काठ न जानई, कबहूँ बरसा मेंह॥”
अर्थ :- पानी के स्नेह को हरा वृक्ष ही जानता है,सूखी लकड़ी क्या जाने कि कब पानी बरसा ? अर्थात सहृदय ही प्रेम भाव को समझता है। निर्मम मन इस भावना को क्या जाने ?
” झिरमिर- झिरमिर बरसिया, पाहन ऊपर मेंह।
माटी गलि सैजल भई, पांहन बोही तेह॥”
अर्थ :- कबीर दास जी कहते हैं कि बादल पत्थर के ऊपर झिरमिर करके बरसने लगे, इससे मिट्टी तो भीग कर गीली हो गई ,किन्तु पत्थर वैसा का वैसा बना रहा।
” कहत सुनत सब दिन गए, उरझी न सुरझ्या मन।
कहि कबीर चेत्या नहीं, अजहूँ सो पहला दिन॥”
अर्थ :- कहते सुनते सब दिन बीत गए, पर यह मन उलझ कर न सुलझ पाया । कबीर दास जी कहते हैं कि यह मन अभी भी होश में नहीं आया । आज भी मन की अवस्था पहले दिन के ही समान है।
” इक दिन ऐसा होइगा, सब सूं पड़े बिछोह।
राजा राणा छत्रपति, सावधान किन होय॥”
अर्थ :- एक दिन ऐसा जरूर आएगा जब सबसे बिछुड़ना पडेगा। हे राजाओं ! हे छत्रपतियों ! तुम अभी से सावधान क्यों नहीं हो जाते ।
” कबीर प्रेम न चक्खिया,चक्खि न लिया साव।
सूने घर का पाहुना, ज्यूं आया त्यूं जाव॥”
अर्थ :- कबीर दास जी कहते हैं कि जिस व्यक्ति ने प्रेम को चखा नहीं, और चख कर स्वाद नहीं लिया, वह उस अतिथि के समान है जो सूने, निर्जन घर में जैसा आता है, वैसा ही चला भी जाता है, कुछ प्राप्त नहीं कर पाता।
” क्काज्ल केरी कोठारी, मसि के कर्म कपाट।
पांहनि बोई पृथमीं,पंडित पाड़ी बात॥”
अर्थ :- यह संसार काजल की कोठरी के सामान है , इसके कर्म रूपी कपाट कालिमा के ही बने हुए हैं। पंडितों ने पृथ्वीपर पत्थर की मूर्तियाँ स्थापित करके मार्ग का निर्माण किया है।
” मूरख संग न कीजिए ,लोहा जल न तिराई।
कदली सीप भावनग मुख, एक बूँद तिहूँ भाई ॥”
अर्थ :- मूर्ख मनुष्य की सङ्गति नहीं करनी चाहिए जो लोहे के सामान होता है। लोहा जल में नहीं तैर पाता है डूब जाता है । संगति का प्रभाव इतना पड़ता है कि आकाश से एक बूँद केले के पत्ते पर गिर कर कपूर, सीप के अन्दर गिर कर मोती और सांप के मुख में पड़कर विष बन जाती है।
” ऊंचे कुल क्या जनमिया जे करनी ऊंच न होय।
सुबरन कलस सुरा भरा साधू निन्दै सोय ॥”
अर्थ :- यदि कार्य उच्च कोटि के नहीं हैं तो उच्च कुल में जन्म लेने से क्या लाभ ? सोने का कलश यदि मदिरा से भरा है तो साधु उसकी निंदा ही करेंगे।
” कबीर संगति साध की , कड़े न निर्फल होई ।
चन्दन होसी बावना , नीब न कहसी कोई ॥”
अर्थ :- कबीर कहते हैं कि साधु की संगति कभी निष्फल नहीं होती। चन्दन का वृक्ष यदि छोटा भी होगा तो भी उसे कोई नीम का वृक्ष नहीं कहेगा। वह सुगन्धित ही रहेगा और अपने परिवेश को सुगंध ही देगा।
” जानि बूझि साँचहि तजै, करै झूठ सूं नेह ।
ताकी संगति रामजी, सुपिनै ही जिनि देहु ॥”
अर्थ :- कबीर दास जी कहते हैं कि जो जानबूझ कर सत्य का साथ छोड़ देते हैं झूठ से प्रेम करते हैं ।हे ईश्वर ऐसे लोगों की संगति हमें स्वप्न में भी नहीं देना।
” मन मरया ममता मुई, जहं गई सब छूटी।
जोगी था सो रमि गया, आसणि रही बिभूति ॥”
अर्थ :- मन को मार डाला ममता भी समाप्त हो गई ,अहंकार सब नष्ट हो गया जो योगी था वह तो यहाँ से चला गया अब सिर्फ आसन पर उसकी भस्म पड़ी रह गई।
” तरवर तास बिलम्बिए, बारह मांस फलंत ।
सीतल छाया गहर फल, पंछी केलि करंत ॥”
अर्थ :- कबीर दास जी कहते हैं कि ऐसे वृक्ष के नीचे विश्राम कीजिये जो बारहों महीने फल देता हो।साथ ही जिसकी छाया शीतल हो , फल सघन हों और जहां पक्षी क्रीडा करते हों।
” काची काया मन अथिर थिर थिर काम करंत ।
ज्यूं ज्यूं नर निधड़क फिरै त्यूं त्यूं काल हसन्त ॥”
अर्थ :- कबीर दास जी कहते हैं कि मानव शरीर शरीर नश्वर है,मन चंचल है ; परन्तु मानव इन्हें स्थिर मान कर इस संसार में मगन रहकर निडर घूमता है ,उतना ही काल (अर्थात मृत्यु )उस पर हँसता है ! मृत्यु पास है यह जानकर भी इंसान अनजान बना रहता है |
” मान, महातम, प्रेम रस, गरवा तण गुण नेह।
ए सबही अहला गया, जबहीं कह्या कुछ देह॥”
अर्थ :- मान, महत्त्व, प्रेम रस, गौरव गुण तथा स्नेह सब बाढ़ में बह जाते हैं जब किसी मनुष्य से कुछ देने के लिए कहा जाता है।
” जाता है सो जाण दे, तेरी दसा न जाइ।
खेवटिया की नांव ज्यूं, घने मिलेंगे आइ॥”
अर्थ :- जो जाता है उसे जाने दो। तुम अपनी स्थिति को, दशा को न जाने दो। यदि तुम अपने स्वरूप में बने रहे तो केवट की नाव की तरह अनेक व्यक्ति आकर आपसे मिलेंगे।
” मानुष जन्म दुलभ है, देह न बारम्बार।
तरवर थे फल झड़ी पड्या,बहुरि न लागे डारि॥”
अर्थ :- मानव जन्म पाना अत्यंत दुर्लभ है,जो शरीर बार-बार नहीं मिलता। जो फल वृक्ष से नीचे गिर पड़ता है वह पुन: उसकी डाल पर नहीं लगता |
” यह तन काचा कुम्भ है,लिया फिरे था साथ।
ढबका लागा फूटिगा, कछू न आया हाथ॥”
अर्थ :- यह शरीर कच्चा घड़ा है जिसे तू साथ लिए घूमता फिरता था। जरा-सी चोट लगते ही जो फूट जायेगा, कुछ भी हाथ नहीं आएगा।
” मैं मैं बड़ी बलाय है, सकै तो निकसी भागि।
कब लग राखौं हे सखी, रूई लपेटी आगि॥”
अर्थ :- अहंकार बहुत बुरी वस्तु है संभव हो सके तो इससे निकल कर भाग जाओ। कबीर दास जी कहते हैं कि मित्र रूई में लिपटी इस अहंकार रूपी अग्नि को कब तक अपने पास रखूँ ?
” कबीर बादल प्रेम का, हम पर बरसा आई ।
अंतरि भीगी आतमा, हरी भई बनराई ॥”
अर्थ :- कबीर दास जी कहते हैं प्रेम का बादल मेरे ऊपर आकर बरस पडा, जिससे अंतरात्मा तक भीग गई, आस पास पूरा परिवेश हरा-भरा हो गया, खुश हाल हो गया। यह प्रेम का अभूतपूर्व प्रभाव में हमें जीना चाहिए।
” जिहि घट प्रेम न प्रीति रस, पुनि रसना नहीं नाम।
ते नर या संसार में , उपजी भए बेकाम ॥”
अर्थ :- कबीर दास जी कहते हैं कि जिनके ह्रदय में न तो प्रीति है और न प्रेम का स्वाद, जिनकी जिह्वा पर राम का नाम नहीं आता, वे मनुष्य इस संसार में उत्पन्न हो कर भी व्यर्थ हैं। प्रेम ही जीवन की सार्थकता है और प्रेम रस में डूबे रहना जीवन का सार है।
” लंबा मारग दूरि घर, बिकट पंथ बहु मार।
कहौ संतों क्यूं पाइए, दुर्लभ हरि दीदार॥”
अर्थ :- घर दूर है, मार्ग लंबा है, रास्ता भयंकर है और उसमें अनेक पातक चोर ठग हैं। हे सज्जनों ! कहो , भगवान् का दुर्लभ दर्शन कैसे प्राप्त हो ? संसार में जीवन कठिन है, अनेक बाधाएं हैं, विपत्तियां हैं, उनमें पड़कर हम भरमाए रहते हैं, बहुत से आकर्षण हमें अपनी ओर खींचते रहते हैं जिससे हम अपना लक्ष्य भूल जाते हैं और अपनी पूंजी गंवा देते हैं।
” इस तन का दीवा करों, बाती मेल्यूं जीव।
लोही सींचौं तेल ज्यूं, कब मुख देखों पीव॥”
अर्थ :- इस शरीर को दीपक बना लूं, उसमें प्राणों की बत्ती डालूँ और रक्त से तेल की तरह सींचूं। इस तरह दीपक जला कर मैं अपने प्रिय के मुख का दर्शन कब कर पाऊंगा ? ईश्वर से लौ लगाना उसे पाने की चाह करना उसकी भक्ति में तन-मन को लगाना एक साधना है, तपस्या है, जिसे कोई – कोई विरला ही कर प्राप्त करता है|
” नैना अंतर आव तू, ज्यूं हौं नैन झंपेउ।
ना हौं देखूं और को न तुझ देखन देऊँ॥”
अर्थ :- कबीर दास जी कहते हैं कि हे प्रभु ! तुम इन दो नेत्रों की राह से मेरे भीतर आ जाओ और फिर मैं अपने इन नेत्रों को बंद कर लूं ! फिर न तो मैं किसी दूसरे को देखूं और न ही किसी और को तुम्हें देखने दूं ।
” कबीर रेख सिन्दूर की काजल दिया न जाई।
नैनूं रमैया रमि रहा दूजा कहाँ समाई ॥”
अर्थ :- कबीर दास जी कहते हैं कि जहां सिन्दूर की रेखा है, वहां काजल नहीं दिया जा सकता। जब नेत्रों में राम विराज रहे हैं तो वहां कोई अन्य कैसे निवास कर सकता है ?
” कबीर सीप समंद की, रटे पियास पियास ।
समुदहि तिनका करि गिने, स्वाति बूँद की आस ॥”
अर्थ :- कबीर दास जी कहते हैं कि समुद्र की सीपी प्यास – प्यास रटती रहती है। स्वाति नक्षत्र की बूँद की आशा लिए हुए समुद्र की अपार जलराशि को तिनके के बराबर समझती है। हमारे मन में जो पाने की ललक है जिसे पाने की लगन है, उसके बिना सब निरर्थक है।
” सातों सबद जू बाजते घरि घरि होते राग ।
ते मंदिर खाली परे बैसन लागे काग ॥”
अर्थ :- कबीर दास जी कहते हैं कि जिन घरों में सप्त स्वर गूंजते थे, पल पल उत्सव मनाए जाते थे, वे घर भी अब खाली पड़े हैं । उनपर कौए बैठने लगे हैं। हमेशा एक सा समय तो नहीं रहता , जहां हर्ष था वहां विषाद डेरा डाल सकता है। यह संसार ही परिवर्तनशील है।
” कबीर कहा गरबियौ, ऊंचे देखि अवास ।
काल्हि परयौ भू लेटना ऊपरि जामे घास॥”
अर्थ :- कबीर दास जी कहते है कि ऊंचे भवनों को देख कर क्या गर्व करते हो ? कल या परसों ये ऊंचाइयां और (आप भी) धरती पर लेट जाएंगे ध्वस्त हो जाएंगे और ऊपर से घास उगने लगेगी ! वीरान सुनसान हो जाएगा जो अभी हंसता खिलखिलाता घर आँगन है ! इसलिए कभी गर्व न करना चाहिए|
” जांमण मरण बिचारि करि कूड़े काम निबारि ।
जिनि पंथूं तुझ चालणा सोई पंथ संवारि ॥”
अर्थ :- कबीर दास जी कहते हैं कि जन्म और मरण का विचार करके , बुरे कर्मों को छोड़ दे। जिस मार्ग पर तुझे चलना है उसी मार्ग का स्मरण कर, उसे ही याद रखो ,उसे ही संवार कर सुन्दर बना लो ।
” बिन रखवाले बाहिरा चिड़िये खाया खेत ।
आधा परधा ऊबरै, चेती सकै तो चेत ॥”
अर्थ :- रखवाले के बिना बाहर से चिड़ियों ने खेत खा लिया, कुछ खेत अब भी बचा है । यदि सावधान हो सकते हो तो हो जाओ, उसे बचा लो। जीवन में असावधानी के कारण इंसान बहुत कुछ गँवा देता है, उसे खबर भी नहीं लगती, नुक़सान हो चुका होता है। यदि हम सावधानी बरतें तो कितने नुक़सान से बच सकते हैं ! इसलिए जागरूक होना चाहिए। अब पछताए होत क्या जब चिड़िया चुग गई खेत ।
” कबीर देवल ढहि पड्या ईंट भई सेंवार ।
करी चिजारा सौं प्रीतड़ी ज्यूं ढहे न दूजी बार ॥”
अर्थ :- कबीर दास जी कहते हैं कि शरीर रूपी देवालय नष्ट हो गया, उसकी ईंट ईंट (अर्थात शरीर का अंग अंग ) काई में बदल गई। इस देवालय को बनाने वाले प्रभु से प्रेम कर जिससे यह देवालय दूसरी बार नष्ट न हो।
” कबीर मंदिर लाख का, जडियां हीरे लालि ।
दिवस चारि का पेषणा, बिनस जाएगा कालि ॥”
अर्थ :- कबीर दास जी कहते हैं कि यह शरीर लाख का बना मंदिर है ,जिसमें हीरे और लाल जड़े हुए हैं।यह चार दिन का खिलौना है कल ही नष्ट हो जाएगा। शरीर नश्वर है मेहनत करके उसे सजाते हैं किन्तु उसकी क्षण भंगुरता को भूल जाते हैं, किन्तु सत्य तो इतना ही है कि देह किसी कच्चे खिलौने की तरह टूट फूट जाती है।
” कबीर यह तनु जात है सकै तो लेहू बहोरि ।
नंगे हाथूं ते गए जिनके लाख करोडि॥”
अर्थ :- यह शरीर नष्ट होने वाला है ,हो सके तो अब भी संभल जाओ और इसे संभाल लो । जिनके पास लाखों करोड़ों की संपत्ति थी वे भी यहाँ से खाली हाथ ही गए हैं । इसलिए जीते जी धन संपत्ति जोड़ने में ही न लगे रहो । कुछ सार्थक भी कर लो । जीवन को कोई दिशा दे लो। कुछ नेक कार्य कर लो।
” हू तन तो सब बन भया करम भए कुहांडि ।
आप आप कूँ काटि है, कहै कबीर बिचारि॥”
अर्थ :- यह शरीर तो सब जंगल के समान है , हमारे कर्म ही कुल्हाड़ी के समान हैं। इस प्रकार हम खुद अपने आपको काट रहे हैं। यह बात कबीर दास जी सोच – विचार कर कहे हैं।
” तेरा संगी कोई नहीं सब स्वारथ बंधी लोइ ।
मन परतीति न उपजै, जीव बेसास न होइ ॥”
अर्थ :- तेरा साथी कोई भी नहीं है। सब मनुष्य स्वार्थ में बंधे हुए हैं, जब तक इस बात का भरोसा मन में जाग्रत होता तब तक आत्मा के प्रति विशवास जाग्रत नहीं होता। वास्तविकता का ज्ञान न होने से मनुष्य संसार में रमा रहता है ,जब संसार के सच को जान लेता है। इस स्वार्थमय सृष्टि को समझ लेता है , तब ही अंतरात्मा की ओर उन्मुख होता है।
” मैं मैं मेरी जिनी करै, मेरी सूल बिनास ।
मेरी पग का पैषणा मेरी गल की पास ॥”
अर्थ :- कबीर दास जी कहते हैं कि ममता और अहंकार के चक्कर में मत फंसो, यह मेरा है की रट मत लगाओ । ये विनाश के मूल हैं, जड़ हैं ,कारण हैं ,ममता पैरों की बेडी है और गले की फांसी है।
” कबीर नाव जर्जरी कूड़े खेवनहार ।
हलके हलके तिरि गए बूड़े तिनि सर भार ॥”
अर्थ :- कबीर दास जी कहते हैं कि जीवन की नौका टूटी फूटी है जर्जर है उसे खेने वाले मूर्ख हैं जिनके सर पर ( विषय वासनाओं ) का बोझ है वे तो संसार सागर में डूब जाते हैं ,संसारी हो कर रह जाते हैं । दुनिया के धंधों से उबर नहीं पाते, उसी में उलझ कर रह जाते हैं पर जो इनसे मुक्त हैं, हलके हैं वे तर जाते हैं , पार लग जाते हैं और भव सागर में डूबने से बच जाते हैं।
” मन जाणे सब बात जांणत ही औगुन करै ।
काहे की कुसलात कर दीपक कूंवै पड़े ॥”
अर्थ :- मन सब बातों को जानता है जानता हुआ भी अवगुणों में फंस जाता है जो दीपक हाथ में पकडे हुए भी कुंए में गिर पड़े उसकी कुशल कैसी |
” हिरदा भीतर आरसी मुख देखा नहीं जाई ।
मुख तो तौ परि देखिए जे मन की दुविधा जाई ॥”
अर्थ :- ह्रदय के अंदर ही दर्पण है ,परन्तु वासनाओं की मलिनता के कारण मुख का स्वरूप दिखाई ही नहीं देता। अपना चेहरा या वास्तविक स्वरूप तो तभी दिखाई पड़ सकता जब मन का संशय मिट जाए ।
” करता था तो क्यूं रहया, जब करि क्यूं पछिताय ।
बोये पेड़ बबूल का, अम्ब कहाँ ते खाय ॥”
अर्थ :- यदि तू अपने को कर्ता समझता था तो चुप क्यों बैठा रहा ? और अब कर्म करके पश्चात्ताप क्यों करता है ? पेड़ बबूल का लगाया है तो फिर आम खाने को कहाँ से मिलें ?
” माया मुई न मन मुवा, मरि मरि गया सरीर ।
आसा त्रिष्णा णा मुई यों कहि गया कबीर ॥”
अर्थ :- न माया मरती है न मन शरीर न जाने कितनी बार मर चुका। आशा, तृष्णा कभी नहीं मरती | ऐसा कबीर कई बार कह चुके हैं।
” कबीर सो धन संचिए जो आगे कूं होइ।
सीस चढ़ाए पोटली, ले जात न देख्या कोइ ॥”
अर्थ :- कबीर दास जी कहते हैं कि उस धन को इकट्ठा करो जो भविष्य में काम दे। सर पर धन की गठरी बांधकर ले जाते तो किसी को भी इस संसार में नहीं देखा।
” झूठे को झूठा मिले, दूंणा बंधे सनेह।
झूठे को साँचा मिले तब ही टूटे नेह ॥”
अर्थ :– जब झूठे आदमी को दूसरा झूठा आदमी मिलता है तो उनमें दूना प्रेम बढ़ता है ,किन्तु पर जब झूठे को एक सच्चा आदमी मिलता है तभी प्रेम टूट जाता है।
” करता केरे गुन बहुत औगुन कोई नाहिं।
जे दिल खोजों आपना, सब औगुन मुझ माहिं ॥”
अर्थ :- प्रभु में गुण बहुत हैं ,अवगुण कोई नहीं है।जब हम अपने हृदय की खोज करते हैं, तब सभी अवगुण अपने ही भीतर पाते हैं।
” कबीर चन्दन के निडै नींव भी चन्दन होइ।
बूडा बंस बड़ाइता यों जिनी बूड़े कोइ ॥”
अर्थ :- कबीर दास जी कहते हैं कि यदि चंदन वृक्ष के पास नीम का वृक्ष हो तो वह भी सुगन्धित हो जाता है। लेकिन बांस अपनी लम्बाई – बडेपन कारण डूब जाता है। इस तरह तो किसी को भी नहीं डूबना चाहिए। संगति का अच्छा प्रभाव ग्रहण करना चाहिए ।
” दुःख में सुमिरन सब करे सुख में करै न कोय।
जो सुख में सुमिरन करे दुःख काहे को होय ॥”
अर्थ :- कबीर दास जी कहते हैं कि दुःख के समय सभी भगवान् को याद करते हैं ,पर सुख में कोई नहीं करता। यदि सुख में भी भगवान् को याद किया जाए तो दुःख हो ही क्यों ?
” साईं इतना दीजिये, जा मे कुटुम समाय ।
मैं भी भूखा न रहूँ, साधु ना भूखा जाय ॥”
अर्थ :- कबीर दास जी कहते हैं कि परमात्मा तुम मुझे इतना दो कि जिसमे मेरा गुजारा हो जाये , खुद भी भूखा नहीं रहूं और आने वाले मेहमानो को भी भोजन करा सकूँ।
” काल करे सो आज कर, आज करे सो अब ।
पल में प्रलय होएगी,बहुरि करेगा कब ॥”
अर्थ :- कबीर दास जी समय की महत्ता बताते हुए कहते हैं कि जो कल करना है उसे आज करो और और जो आज करना है उसे अभी करो , कुछ ही समय में जीवन ख़त्म हो जायेगा फिर तुम क्या कर पाओगे |
” लूट सके तो लूट ले,राम नाम की लूट ।
पाछे फिर पछ्ताओगे,प्राण जाहि जब छूट ॥”
अर्थ :- कबीर दास जी कहते हैं कि अभी राम नाम की लूट मची है , अभी तुम भगवान् का जितना नाम लेना चाहो ले लो नहीं तो समय निकल जाने पर, अर्थात मर जाने के बाद पछताओगे कि मैंने तब राम भगवान् की पूजा क्यों नहीं की ।