रहीम दास जी की जीवनी एवं उसके दोहे

                                                                                   रहीम दास जी जीवनी
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रहीम दास जी जन्म सम्वत 1613 ( 17 दिसंबर सन 1556 ईस्वी ) में लाहौर में हुथा।रहीम के पिता अकबर के संरक्षक बैरम खां और माता सुल्ताना बेगम थी।रहीम खां जब आ पांच वर्ष के ही थे, तब ही 1561 ईस्वी में इनके पिता बैरम खां की हत्या कर दी गई थी।उसके बाद रहीम का लालन – पालन अकबर ने अपने पुत्र की भांति किया।रहीम ने बाबा जम्बूर,मुल्ला मुहम्मद एवं बदाऊनी की देखरेख में अपना अध्धयन कार्य किया। 1584 ईस्वी में अकबर ने रहीम को ” ख़ान- ए- खाना “एवं ” मिर्जा खां ” की उपाधियों से विभूषित किया।रहीम का देहांत 71 वर्ष की आयु में १६२७ ईस्वी में हो गया।

         बचपन से ही रहीम साहित्य प्रेमी एवं बुद्धिमान थे।रहीम वास्तव में मुस्लमान होते हुए भी संस्कृति से सच्चे भारतीय थे।उन्होंने अवधी और ब्रजभाषा दोनों में में ही कविता की है,जो सरल,प्रवाहपूर्ण एवं स्वाभाविक है।इनके काव्य में शृंगार,शांत एवं हास्य रस का संगम दृष्टिगोचर होता है।दोहा,सोरठा,बरवै,कवित्त और सबैया प्रिय छंद हैं।इनकी काव्य रचनाएँ अत्यंत सरल,स्पष्ट एवं बोधगम्य रचना शैली में है।
रहीम दास जी की प्रमुख रचनाएँ हैं- रहीम दोहावली,बरवै,नायिका भेद,मदनाष्टक,राग पंचाध्यायी,नगर शोभा,सोरठा,फुटकर छंद,फुटकर कवित्त,सबैये,संस्कृत काव्य आदि। रहीम ने तुर्की भाषा में बाबर की आत्मकथा ” तुजुके बाबरी “का फ़ारसी अनुवाद किया ।
वास्तव में रहीम का व्यक्तित्व अत्यंत प्रभावशाली था।वे मुसलमान होते हुए भी कृष्ण के अनन्य भक्त थे।इनके काव्य में नीति,भक्ति,प्रेम एवं शृंगार का सुन्दर सम्मिश्रण मिलता है।इन्होने दोहों के माध्यम से समाज को एक को दिशा एवं ज्ञान देने का भरसक प्रयत्न किया है।वे भारतीय संस्कृति के अनन्य आराधक तथा सभी सम्प्रदायों के प्रति समादर भाव के सत्यनिष्ठ साधक भी थे।वास्तव में रहीम दास जी कलम और तलवार के धनी और मानव प्रेम के सूत्रधार थे।


              रहीम दास जी के दोहे
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” बिगरी बात बने नहीं, लाख करो किन कोय।
   रहिमन फाटे दूध को, मथे न माखन होय।।”

अर्थ :- मनुष्य को सोच समझ कर व्यवहार करना चाहिए,क्योंकि किसी कारणवश यदि बात बिगड़ जाती है तो फिर उसे बनाना कठिन होता है। जैसे यदि एकबार दूध फट गया तो लाख कोशिश करने पर भी उसे मथ कर मक्खन नहीं निकाला जा सकता ।


” रहिमन धागा प्रेम का, मत तोरो चटकाय।
   टूटे पे फिर ना जुरे, जुरे गाँठ परी जाय।।”

अर्थ : – रहीम दास जी कहते हैं कि प्रेम का नाता अत्यंत नाज़ुक होता है, इसे झटका देकर तोड़ना उचित नहीं होता। यदि यह प्रेम का धागा एक बार टूट जाता है तो फिर इसे जोड़ना मुश्किल होता है और यदि जुड़ भी जाए तो टूटे हुए धागों के बीच में गाँठ पड़ जाती है।


” रहिमन देखि बड़ेन को, लघु न दीजिए डारि।
     जहां काम आवे सुई, कहा करे तरवारि।।”

अर्थ :- रहीम दास जी कहते हैं कि बड़ी वस्तु को देख कर छोटी वस्तु को नहीं फेंकनी चाहिए क्योंकि जहां छोटी सी सुई काम आती है, वहां तलवार बेचारी क्या कर सकती है ?


” जो रहीम उत्तम प्रकृति, का करी सकत कुसंग।
     चन्दन विष व्यापे नहीं, लिपटे रहत भुजंग।।”

अर्थ :- रहीम दास जी कहते हैं कि जो अच्छे स्वभाव के मनुष्य होते हैं,उनको बुरी संगति भी बिगाड़ नहीं पाती। जहरीले सांप चन्दन के वृक्ष से लिपटे रहने पर भी उस पर कोई जहरीला प्रभाव नहीं डाल पाते।


” रूठे सुजन मनाइए, जो रूठे सौ बार।
रहिमन फिरि फिरि पोइए, टूटे मुक्ता हार।।”

अर्थ :- यदि आपका प्रिय सौ बार भी नाराज हो जाये , तो भी नाराज हुए प्रिय को मनाना चाहिए,क्योंकि यदि मोतियों की माला टूट जाए तो उन मोतियों को बार बार धागे में पिरो लेना चाहिए।


” जो बड़ेन को लघु कहें, नहीं रहीम घटी जाहिं।

गिरधर मुरलीधर कहें, कछु दुःख मानत नाहिं।।”

अर्थ :- रहीम दास जी कहते हैं कि बड़े को छोटा कहने से बड़े का बड़प्पन नहीं घटता, क्योंकि गिरिधर (कृष्ण) को मुरलीधर कहने से उनकी महिमा में कमी नहीं होती।


” जैसी परे सो सहि रहे, कहि रहीम यह देह।
    धरती ही पर परत है, सीत घाम औ मेह।।”

अर्थ :- रहीम कहते हैं कि जैसी इस देह पर पड़ती है, सहन करनी चाहिए, क्योंकि इस धरती पर ही सर्दी, गर्मी और वर्षा पड़ती है। अर्थात जैसे धरती शीत, धूप और वर्षा सहन करती है, उसी प्रकार शरीर को सुख-दुःख सहन करना चाहिए।


” खीरा सिर ते काटि के, मलियत लौंन लगाय।
रहिमन करुए मुखन को, चाहिए यही सजाय।।”

अर्थ :- खीरे का कडुवापन दूर करने के लिए उसके ऊपरी हिस्से को काट कर नमक लगा कर घिसा जाता है। रहीम कहते हैं कि कड़ुवे मुंह वाले के लिए , कटु वचन बोलने वाले के लिए यही सजा उचित है |


” दोनों रहिमन एक से, जों लों बोलत नाहिं।
जान परत हैं काक पिक, रितु बसंत के माहिं।।”

अर्थ :- कौआ और कोयल रंग में एक समान होते हैं। जब तक ये बोलते नहीं तब तक इनकी पहचान नहीं हो पाती।लेकिन जब वसंत ऋतु आती है तो कोयल की मधुर आवाज़ से दोनों का अंतर स्पष्ट हो जाता है |


” रहिमन अंसुवा नयन ढरि, जिय दुःख प्रगट करेइ,
      जाहि निकारौ गेह ते, कस न भेद कहि देइ।।”

अर्थ :- रहीम दास जी कहते हैं कि आंसू नयनों से बहकर मन का दुःख प्रकट कर देते हैं। सत्य ही है कि जिसे घर से निकाला जाएगा वह घर का भेद दूसरों से कह ही देगा।


” रहिमन निज मन की बिथा, मन ही राखो गोय।
     सुनी इठलैहैं लोग सब, बांटी न लेंहैं कोय।।”

अर्थ :-  रहीम दास जी कहते हैं कि अपने मन के दुःख को मन के भीतर छिपा कर ही रखना चाहिए। दूसरे का दुःख सुनकर लोग इठला भले ही लें, उसे बाँट कर कम करने वाला कोई नहीं होता।


” पावस देखि रहीम मन, कोइल साधे मौन।
  अब दादुर वक्ता भए, हमको पूछे कौन।।”

अर्थ :- वर्षा ऋतु को देखकर कोयल और रहीम के मन ने मौन साध लिया है। अब तो मेंढक ही बोलने वाले हैं। हमारी तो कोई बात ही नहीं पूछता। अभिप्राय यह है कि कुछ अवसर ऐसे आते हैं जब गुणवान को चुप रह जाना पड़ता है। उनका कोई आदर नहीं करता और गुणहीन वाचाल व्यक्तियों का ही वर्चस्व हो जाता है।


” रहिमन विपदा हू भली, जो थोरे दिन होय।
हित अनहित या जगत में, जान परत सब कोय।।”

अर्थ :- रहीम दास जी कहते हैं कि यदि विपत्ति कुछ समय की हो तो वह भी ठीक ही है, क्योंकि विपत्ति में ही सबके विषय में जाना जा सकता है कि संसार में कौ आपका हितैषी है और कौन हितैषी नहीं।


” वे रहीम नर धन्य हैं, पर उपकारी अंग।
 बांटन वारे को लगे, ज्यों मेंहदी को रंग।।”

अर्थ :- रहीम दास जी कहते हैं कि वे लोग धन्य हैं जिनका शरीर सदा सबका उपकार करता है। जिस प्रकार मेंहदी बांटने वाले के अंग पर भी मेंहदी का रंग लग जाता है, उसी प्रकार परोपकारी व्यक्ति जब ख़ुशी बांटता है तो उसे ख़ुशी अपने आप मिल जाता है।


” समय पाय फल होत है, समय पाय झरी जात।
    सदा रहे नहिं एक सी, का रहीम पछितात।।”

अर्थ :- रहीम दास जी कहते हैं कि उपयुक्त समय आने पर ही वृक्ष में फल लगते हैं । झड़ने का समय आने पर वह झड़ जाता है। सदा किसी की अवस्था एक जैसी नहीं रहती, इसलिए दुःख के समय पछताना नहीं चाहिए ।


” ओछे को सतसंग रहिमन तजहु अंगार ज्यों।
           तातो जारै अंग सीरै पै कारौ लगै।।”

अर्थ :- ओछे मनुष्य का साथ छोड़ देना चाहिए। हर स्थिति में उससे हानि होती है ,जैसे अंगार जब तक गर्म रहता है तब तक शरीर को जलाता है और जब ठंडा कोयला हो जाता है तब भी शरीर को काला ही करता है।


” वृक्ष कबहूँ नहीं फल भखैं, नदी न संचै नीर।
     परमारथ के कारने, साधुन धरा सरीर ।।”

अर्थ :- वृक्ष कभी अपने फल नहीं खाते, नदी जल को कभी अपने लिए संचित नहीं करती, उसी प्रकार सज्जन परोपकार के लिए शरीरधारण करते हैं |


” लोहे की न लोहार की, रहिमन कही विचार जा।
          हनि मारे सीस पै, ताही की तलवार।।”

अर्थ :- रहीम दास जी विचार करके कहते हैं कि तलवार न तो लोहे की कही जाएगी न लोहार की, तलवार उस वीर की कही जाएगी जो वीरता पूर्वक शत्रु के सर पर प्रहार कर उसके प्राणों का अंत कर देता है।


” तासों ही कछु पाइए, कीजे जाकी आस।
    रीते सरवर पर गए, कैसे बुझे पियास।।”

अर्थ :- जिससे कुछ मिल सकें, उससे ही किसी वस्तु की आशा करना चाहिए , क्योंकि पानी से रहित तालाब से प्यास बुझाने की आशा करना व्यर्थ है।


“माह मास लहि टेसुआ मीन परे थल और।
  त्यों रहीम जग जानिए, छुटे आपुने ठौर।।”

अर्थ :- माघ मास आने पर टेसू (पलाश ) का वृक्ष और पानी से बाहर पृथ्वी पर आ पड़ी मछली की दशा बदल जाती है। इसी प्रकार संसार में अपने स्थान से छूट जाने पर संसार की अन्य वस्तुओं की दशा भी बदल जाती है। मछली जल से बाहर आकर मर जाती है वैसे ही संसार की अन्य वस्तुओं की भी हालत होती है।


” रहिमन नीर पखान, बूड़े पै सीझै नहीं।
      तैसे मूरख ज्ञान, बूझै पै सूझै नहीं।।”

अर्थ :- जिस प्रकार जल में पड़ा रहने पर भी पत्थर नरम नहीं होता, उसी प्रकार मूर्ख व्यक्ति की अवस्था होती है। दिए जाने पर भी उसकी समझ में कुछ नहीं आता।


” संपत्ति भरम गंवाई के हाथ रहत कछु नाहिं।
ज्यों रहीम ससि रहत है दिवस अकासहि माहिं।।”

अर्थ :- जिस प्रकार दिन में चन्द्रमा आभाहीन हो जाता है, उसी प्रकार जो व्यक्ति किसी व्यसन ( बुरी आदतों ) में फंस कर अपना धन गँवा देता है और उसके हाथ में कुछ नहीं रहता।


” साधु सराहै साधुता, जाती जोखिता जान। 
रहिमन सांचे सूर को बैरी कराइ बखान।।”

अर्थ :- रहीम दास जी कहते हैं कि इस बात को जान लो कि साधु सज्जन की प्रशंसा करता है यति योगी और योग की प्रशंसा करता है पर सच्चे वीर के शौर्य की प्रशंसा उसके शत्रु भी करते हैं।


” वरू रहीम कानन भल्यो वास करिय फल भोग।
     बंधू मध्य धनहीन ह्वै, बसिबो उचित न योग।।”

अर्थ :- रहीम दास जी कहते हैं कि निर्धन होकर बंधु-बांधवों के बीच रहना उचित नहीं है। इससे अच्छा तो यह है कि वन मैं जाकर रहें और फलों का भक्षण करें|


” राम न जाते हरिन संग से न रावण साथ।
जो रहीम भावी कतहूँ होत आपने हाथ।।”

अर्थ :- रहीम दास जी कहते हैं कि यदि होनी ( जो होने वाला है ) अपने ही हाथ में होती और जो होना है उस पर हमारा बस होता तो ऐसा क्यों होता कि राम हिरन के पीछे जाते और सीता का हरण हुआ होता; क्योंकि होनी को होना था, उस पर किसी का बस नहीं होता है। इसलिए तो राम स्वर्ण मृग के पीछे गए और सीता को रावण हर कर लंका ले गया।


” रहिमन रीति सराहिए, जो घट गुन सम होय।
    भीति आप पै डारि के, सबै पियावै तोय।।”

अर्थ :- रहीम दास जी कहते हैं कि उस व्यवहार की सराहना की जानी चाहिए जो घड़े और रस्सी के व्यवहार के समान हो।घड़ा और रस्सी स्वयं जोखिम उठा कर दूसरों को जल पिलाते हैं जब घड़ा कुँए में जाता है तो रस्सी के टूटने और घड़े के टूटने का खतरा तो रहता ही है।


” निज कर क्रिया रहीम कहि सीधी भावी के हाथ।
       पांसे अपने हाथ में दांव न अपने हाथ।।”

अर्थ :- रहीम दास जी कहते हैं कि अपने हाथ में तो केवल कर्म करना ही होता है सिद्धि तो भाग्य से ही मिलती है , जैसे चौपड़ खेलते समय पांसे तो अपने हाथ में रहते हैं पर दांव क्या आएगा यह अपने हाथ में नहीं होता।

 

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