अशोक सिंहल जी की जीवनी

अशोक सिंहल जी की जीवनी :- सोये हुए हिन्दू पौरुष को जगाने एवं श्रीराम जन्मभूमि आंदोलन को गति प्रदान करने नायकों में श्रद्धेय अशोक सिंहल जी का नाम बड़े आदर के साथ युगों – युगों तक लिया जाता रहेगा। इनका जन्म 15 सितम्बर सन 1926 ईस्वी में आगरा के अतरौली में एक संपन्न परिवार में हुआ।उनके पिता एक सरकारी कर्मचारी थे।इनकी माता बड़े ही धार्मिक विचारों की महिला थीं।घर का वातावरण बड़ा ही धार्मिक था।अशोक सिंहल जी जब नौवीं कक्षा में पढ़ते थे तब उन्होंने महर्षि दयानन्द की जीवनी पढ़ी और अत्यंत प्रभावित हुए।
  1942 ईस्वी में अशोक सिंहल जी माननीय रज्जु भैया के निर्देशन में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़े।1950 में इन्होंने बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय से धातुकर्म में इंजीनियरिंग की पढ़ाई पूरी कर नौकरी करने की बजाय उन्होंने समाज सेवा का रास्ता चुना और पूर्णकालिक प्रचारक बनकर अपना सम्पूर्ण जीवन देश सेवा में लगा दिया।इस दिशा में दिल्ली,हरियाणा में प्रान्त प्रचारक रहे। 1975 – 1977 तक आपातकाल और संघ पर प्रतिबन्ध के दौरान इंदिरा गांधी की तानाशाही के विरुद्ध लोगों को जुटाते रहे। उसके उपरांत दिल्ली प्रान्त के प्रचारक बने।1981 में डॉक्टर कर्ण सिंह के नेतृत्त्व वाले विशाल हिन्दू सम्मलेन में इनकी भूमिका यादगार रही और तदुपरांत इन्हें विश्व हिन्दू परिषद् के कार्य में लगा दिए गए। इसके बाद धर्मजागरण, सेवा, संस्कृत, परावर्तन, गोरक्षा,जातीय उन्मूलन एवं शिक्षा के क्षेत्र में इनका योगदान अतुलनीय है।
  ” गर्व से कहो कि हम हिन्दू हैं ” विवेकानंद जी की उक्ति के प्रबल समर्थक थे। इस सम्बन्ध में इनका मानना था कि रामजन्म मंदिर आंदोलन,सांस्कृतिक एकता, स्वतंत्रता का एक आंदोलन है। इसके लिए इन्होंने विश्व के कोने – कोने में रह रहे हिन्दुओं को भारतीय परंपरा से जोड़ा।आज अशोक सिंहल जी के अथक प्रयासों का फल है कि आज विश्व में रह रहे नई सामाजिक और राष्ट्रीय चेतना देखने को मिल रहा है।
  इस प्रकार भारतीय राष्ट्रीय एकता एवं समन्वय के प्रतीक अशोक सिंहल जी हिन्दू संगठन विश्व हिन्दू परिषद् के 20 वर्षों तक अंतर्राष्ट्रीय अध्यक्ष रहे। 2011 में बिगड़ते स्वास्थ्य के कारण उन्हें अपना स्थान छोड़ना पड़ा और प्रवीण तोगड़िया ने उनका स्थान लिया।17 नवम्बर 2015 ईस्वी में गुरुग्राम में 89 वर्ष की आयु में उन्होंने अंतिम साँस ली।
अशोक सिंहल जी एक महान विभूति थे। उन्होंने अपने संस्मरण में लिखा है कि एक बार वे एक महात्मा से मिलने गए और बातचीत के क्रम में उनसे कहा कि वे गोलवरकर के साथ काम कर रहे हैं तो उन्होंने कहा था कि ” तुमने जमीन में पड़ी दो – चार इंच चौड़ी दरारें देखी होंगी,किन्तु हिन्दू समाज में इतनी चौड़ी दरारें पड़ गई हैं,जिनमें हाथी चला जाये।” गोलवरकर जी उन्हीं दरारों को भरने का कार्य कर रहे हैं। तुम पुण्यात्मा हो,जो उनके साथ लगे हो।

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