मीरा और महादेवी

                                                   ” महादेवी आधुनिक युग की मीरा है ” युक्तियुक्त आलोचना करें।

जिस तरह कश्मीर स्वर्ग नहीं है,फिर भी लोग उसकी तुलना स्वर्ग से करते हैं,उसी तरह महादेवी मीरा नहीं है;किन्तु उनका नाम लेते ही अनायास मीरा की याद आ जाती है।यद्यपि मीरा और महादेवी में अनुप्रास की समानता है,किन्तु दोनों में वही अंतर है जो उपमा और उपमेय में होता है।तन – मन – जीवन,सम्पूर्ण सर्वस्व को ही श्रीकृष्ण के ” त्रिविध ज्वाला हरण ” चरणों पर न्योछावर कर प्रेम योगिनी मीरा वियोगिनी की भांति गाती हुई प्रकट हुई हैं –
                                                              ” एरी मैं तो दरद – दीवानी,
                                                                                        मेरो दरद न जाने कोय ।”
                 मीरा का यह उत्सर्ग मय जीवन ही साहित्य – संगीत – कला बन गया,जबकि महादेवी ने कला को ही अपना जीवन बनाने की भरपूर चेष्टा की है।
महादेवी और मीरा के व्यक्तित्त्व में कोई तुलना नहीं।लौकिक जीवन में अत्यंत सावधान महादेवी के व्यक्तित्त्व से पगली मीरा के बेसुध व्यक्तित्त्व की तुलना अत्युक्ति ही नहीं प्रलाप भी कही जा सकती है।मीरा का आविर्भाव सुर – तुलसी के भक्ति – प्रेममय पवन वातावरण में हुआ था।महादेवी भौतिकता से आक्रांत प्राच्य सभ्यता – संस्कृति की सर्वग्रास वेला में प्रकट हुई है।मीरा का सम्पूर्ण जीवन पीड़ामय था,उसने आंसुओं से सींच – सींच कर प्रेमबेलि बोई थी।महादेवी आधुनिक शिक्षा में पली बढ़ी है,भगवान् बुद्ध एवं सूफियों के दर्शन से प्रभावित हैं,शेली एवं रविंद्र उसके प्रिय कवि हैं तथा जीवन में अधिक दुलार,स्नेह,सम्मान पाने के कारण ही वह पीड़ा की गायिका बन बैठी है –
                                                     ” विस्तृत नभ का कोई कोना,
                                                                           मेरा न कभी अपना होना।
                                                        परिचय इतना इतिहास यही,
                                                                           उमड़ी कल थी मिट आज चली।”
                      इस तरह जहाँ मीरा की वेदना व्यक्ति वेदना है,वहाँ महादेवी की काव्य वेदना। अतः लौकिक जीवन में दोनों में कोई समानता नहीं,पर यह तो मानना होगा कि इस आधुनिक युग में यदि मीरा के केवल कवि रूप की कल्पना की जाय,तो निःसंदेह वह महादेवी का ही कवि रूप होगा,पंत,प्रसाद अथवा सुभद्रा का नहीं। इस तरह मीरा और महादेवी की तुलना व्यक्तित्त्व के साथ व्यक्तित्त्व की नहीं,व्यक्ति वेदना के साथ काव्य वेदना की हो सकती है।
                    मीरा के काव्य के मुकाबले महादेवी महीयसी है।महादेवी के प्रत्येक पद में काव्य कला खेल रही है,जबकि मीरा के पद कला से खेलते दिलग्गी करते नजर आते हैं।इसका कारण यही है कि मीरा ने काव्य कला की शिक्षा नहीं पाई थी।प्रेम के भावावेश में जो कोयल की तरह कूक गई, उसमें प्रकृति प्रदत्त पंचम स्वर ही नहीं,षड्ज से निषाद तक सातों सुरों का यथा क्रम आरोह – अवरोह वर्तमान है।मीरा के काव्य को केवल साँवली सूरत मोहिनी मूरत का सम्बल प्राप्त है,पर महादेवी को केवल अरुण का ही आधार नहीं है।साहित्य की राशि – राशि,भाव – भंगिमा तथा पूर्व एवं पश्चिम के विविध कलात्मक रूप रंग भी उनके काव्य को मनोरम बना रहें हैं।इसके विपरीत मीरा का काव्य तो,प्रियतम से बिछुड़ी हुई एक ग्रामवधू का एक स्वाभाविक उच्छवास मात्र है।मीरा और महादेवी में भावना के धरातल पर समानताएं भी हैं।दोनों दो अवश्य हैं,पर सर्वथा विलग नहीं।दोनों की अश्रुधारा ने द्वैतभाव की काई को धो – धोकर साफ कर दिया है।यही कारण है कि मीरा का नाम लेते ही महादेवी की याद आ जाती है।मीरा अगर बेसुध होकर गुनगुनाती है –
                                          ” मेरो तो गिरिधर गोपाल दूसरों न कोई ।
                                                   जेक सर मोर – मुकुट मेरो पति सोई ।।”
और महादेवी भी ऐसी बेसुध है कि उन्हें पता ही नहीं रहती कि कब क्या लिखती है –
                                         ” मैं अपने ही बेसुधपन में
                                                     लिखती हूँ कुछ,कुछ लिख जाती हूँ ।”
यदि महादेवी अनुभव करती है –
                                                    ” क्या पूजन क्या अर्चन रे,
                                                       उस असीम का सुन्दर मंदिर मेरा लघुतम जीवन रे ।”
तो मीरा की अनुभूति भी इससे भिन्न नहीं है –
                                               ” जहँ – जहँ पाँव धरूँ धरती पर ,
                                                             तहँ – तहँ निरत करूँ री।”
यदि महादेवी वर्मा प्रिय की प्रतीक्षा में रात बिता देती है –
                                                     ” पथ देख बिता दी रैन ,
                                                                        मैं प्रिय पहचानी नहीं।”
तो मीरा की प्रतीक्षा भी इससे भिन्न नहीं –
                                               ” सखी मेरी नींद नसानी हो,
                                                  प्रिय को पंथ निहारत सिंगरी रैन विहानी हो ।”
यदि महादेवी को संतोष है –
                                     ” तुम मुझमें प्रिय,फिर परिचय क्या ?”
तो मीरा की अनुभूति भी इससे भिन्न नहीं है –
                                     ” तुम बीच हम बीच अंतर नाहीं जैसे सूरज धामा।”
                     उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि महादेवी अरूप की आराधिका है तो मीरा रूप की राधिका। महादेवी कलाकार है तो मीरा तादाकार।मीरा का काव्य निश्छल प्यार का सफल सुमधुर उदगार है,महादेवी का गान निर्गुण निराकार के रूपांकन का प्रेममय प्रयास हैं।महादेवी ने सुन्दर को सत्य रूप में चित्रित किया है,पर मीरा में सत्य स्वयं सुन्दर हो गया है।महादेवी में कला निपुणता है,मीरा में भावना का पारदर्शीपन।महादेवी में गौरव का एक स्थिर गंभीर भाव है,मीरा सिर से पेअर तक सरल और तरल है।मीरा ने अनुभव किया था, देखा था,स्पर्श किया था; महादेवी ने अध्ययन मनन और चिंतन किया है।मीरा प्राणों में गा उठती है,महादेवी हृदय के तारों को छूकर झंकृत कर देती है।महादेवी एक प्रश्न है,मीरा प्रश्न और उत्तर दोनों से परे है।दोनों में अनंत विरह की ईश्वर विषयक वेदना की प्रधानता है और दोनों का एक ही लक्ष्य है,ईश्वर की अनुभूति, उसकी प्राप्ति।जिस प्रकार भक्त सप्तर्षियों के बीच मीरा अरुन्धती तारिका के समान सुशोभित है,उसी प्रकार प्रसाद,पंत और निराला की वृहत्रयी के मध्य महादेवी।

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