महादेवी वर्मा
हिंदी के छायावादी काव्यधारा में श्रीमती महादेवी वर्मा का स्थान अनूठा एवं अद्भुत है।श्री जयशंकर प्रसाद ने छायावाद की पहली मंजिल का मानचित्र तैयार किया,निराला की प्रतिमा के पौरुष द्वारा उसका रूपाकार निर्मित हुआ,पंत के कला – कौशल से उसमें शोभा सुषमा का संचार हुआ और महादेवी वर्मा की उँगलियों के स्पर्श से यह नवीन भारती मंदिर चित्रशाला की तरह जगमगा उठा। यहाँ तक कि जब पंत और निराला छायावाद की ओर से विमुख होकर प्रगतिवाद के धजवड़ी बन गए,तब भी महादेवी की आँखें भींगती रही,हृदय सिंहरन भरता रहा,ओठों की ओटों में आहें सोती रही और मन किसी निष्ठुर की आरती उतारता रहा।यह महादेवी के व्यक्तित्त्व की ढृढ़ता,उनकी अंतर्मुखी साधना और उनके जीवन दर्शन की गंभीरता का प्रमाण है।
महादेवी का समस्त काव्य रहस्यवाद के अंतर्गत आता है।इस रहस्यवाद आत्मा – परमात्मा की पारस्परिक प्रणयानुभूति को कहते हैं।इस दृष्टि से उनका काव्य ब्रह्म के प्रति निवेदन मात्र है।महादेवी की अन्तश्चेतना ने कभी उस प्रियतम का साक्षात्कार किया था,परन्तु इसके पहले कि नववधू के लज्जा का बंधन खुल पाता,वह रूठकर चला गया।कवयित्री के उल्लासमय मानस में सहन समां गया,जिस प्याली में पस्ती की मदिरा भरी थी,उसे पीड़ा से भर दिया गया।तभी तो उन्होंने कहा भी है –
” इन ललचाई पलकों पर,
पहरा था जब क्रीड़ा का,
साम्राज्य मुझे दे डाला,
उस चितवन ने पीड़ा का ।”
फिर उनका प्रियतम था भी कैसा ? वह परम सुन्दर चिर सुन्दर था,सृष्टि की सारी सुंदरता उसके सौंदर्य की छाया मात्र है।कवयित्री ने उस विराट विश्वदेव की आरती प्रियतम के रूप में उतारी है –
” प्रिय चिरंतन है सजनि
क्षण – क्षण नवीन सुहागिनी मैं ।”
महादेवी इसी की प्रतिज्ञा करती हैं,इसी के लिए रोटी हैं,इसी का मनुहार करती हैं,फिर भी उनके प्रेम में पत्नी का आत्म – समर्पण नहीं,प्रियतम का गर्व है।तभी तो वे कहती हैं –
” क्यों रहोगे क्षुद्र प्राणों में नहीं,
क्या तुम्हीं सर्वंश एक महँ हो ।”
महादेवी ने प्रकृति को अत्यंत सहानिभूति से देखा है।उनकी दृष्टि में स्वयं प्रकृति भी उसी प्रेम में लीन है।फूल की खुली हुई पंखुड़ियाँ किसी की राह देखती है,अन्धकार बिजली की दीप किसी को खोजता – फिरता है,संध्या नक्षत्रों की दीप जलाकर किसी की प्रतिज्ञा करती है और निर्झर किसी की याद में आंसू बहाता है।महादेवी के समान ही प्रकृति भी विरह – व्यथिता है और प्रेम की उस संकरी गली में उस प्रियतम से मिलने जाते समय दोनों दो नहीं एक हो जाती हैं –
” फैलते हैं सांध्य नभ में,
भाव ही मेरे रंगीले ।
तिमिर की दीपावली है,
रोम मेरे पुलक गीले ।।”
कवयित्री के प्रियतम निर्गुण निराकार हैं,इसीलिए उनकी पूजा भी मन मंदिर के भीतर ही होती है।उसका प्रियतम किसी मंदिर में नहीं है,जहाँ वह मीरा की भांति नाच सके।अतः बाह्य पूजा विधान को वे व्यर्थ ही समझती हैं –
” क्या पूजन क्या अर्चन रे ?
उस असीम का सुन्दर मंदिर मेरा लघुतम जीवन रे ।”
सामान्य नायिकाओं की तरह महादेवी में मिलान – कामना नहीं,वह विरह को ही प्रेम का जीवन मानती हैं।ब्रह्म को छूने का अर्थ है मिट जाना,पर प्रेम का आनंद तो अस्तित्त्व रहने पर ही उठाया जा सकता है।अतः वह विरह से त्राण की कामना नहीं करती –
” मेरे छोटे जीवन में देना न, तृप्ति का कण भर ।
रहने दो प्यासी आँखें,भर्ती आँसू के सागर ।।”
नीहार,रश्मि,नीरजा,सांध्य गीत और दीपशिखा ये कवयित्री की यात्रा के चरण चिह्न बिंदु हैं।अज्ञात आराध्य की उपासना चलती है,अज्ञात लोक से आह्वान आते हैं और साधना का मार्ग भी निश्चित नहीं है।महादेवी सोचती हैं कि जिससे सब कुछ जाना जाता है,उसे किस वास्तु से जाना जाय –
” वे कहते हैं उनको मैं,
अपनी पुतली में देखूं ।
यह कौन बता जायेगा,
किसमें पुतली को देखूं ।।”
रश्मि,नीहार के धुँधलेपन को चीरकर प्रकाश और प्रसन्नता का वातावरण उपस्थित करती है।यह एक प्रौढ़ रचना है।इसके भाव का अधिक स्पष्ट भाषा अधिक प्रांजल तथा विचार अधिक स्थिर है।यहाँ एक ओर पीड़ा की साधना है और दूसरी ओर साधना का आनंद –
” खोज ही चिर प्राप्ति का वर,
साधना ही सिद्धि सुन्दर ।।”
” रश्मि ” के अवतीर्ण होने के बाद ” नीरजा ” का खिलना स्वाभाविक ही है।हृदय मंदिर श्वेत संगमर्मर की भाँति स्वच्छ हो उठा है,इसीलिए वे गर्व पूर्वक घोषणा करती है –
” इसमें न पंक का चिह्न शेष,
इसमें न ठहरता सलिल लेश,
इसको न जगाती मधुप भीड़ । “
” सांध्य गीत ” कवयित्री के जीवन का सांध्य गीत है।यह वस्तुतः एक मिलनोत्कण्ठा व नायिका के हृदय से निःसृत विह्वल गीत निर्झर है –
” विस्तृत नभ का कोई कोना,
मेरा न कभी अपना होना ।
परिचय इतना इतिहास यही,
उमड़ी कल थी मिट आज चली।।”
दिन चार यामों की प्रणय कथा कहने के लिए जहाँ चार विभिन्न काव्यों का प्रणयन हुआ,वहाँ रात के चार याम अकेली ” दीपशिखा ‘ के सहारे कर गए।कवयित्री अविराम साधना में लीन है।जैसे – जैसे वह घुल रही है,वैसे ही वैसे वह प्रियतम से निकटतम होती जा रही है –
” ———–दीप शिखा सी मैं ,
आ रही अविराम मिट – मिट,
स्वजन और समीपसी मैं ।।’
आंसुओं के भीतर से काँटों के ऊपर होकर चिनगारियों को मुट्ठी में भर कर पतझड़ को सहकर, अन्धकार को जीतकर,अग्निपथ को पारकर,प्रलय से होड़ लगाकर यह साधिका का अपने गंतव्य स्थान की ओर बढ़ती जा रही है।अपने चरणों की गति पर जिसे अटल विश्वास है,दया – भिक्षा जैसी वस्तु से कोसों दूर भागती है,निरंतर चलना ही जिसका लक्ष्य है और अपने हृदय की बात को जो अभी पूर्ण रूप से नहीं कह पाई –
” पर न मैं अब तक व्यथा का,
छंद अंतिम गा चुकी हूँ ।”